सोमवार, 23 मार्च 2009

41. यकीन

यकीन

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चाहती हूँ, यकीन कर लूँ
तुम पर और अपने आप पर
ख़ुदा की गवाही का भ्रम
और तुमसे बाबस्ता मेरी ज़िन्दगी
दोनों ही तक़दीर है
हँसूँ या रोऊँ
कैसे समझाऊँ दिल को?
एक कशमकश-सी है ज़िन्दगी
एक प्रश्नचिह्न-सा है जीवन
हर लम्हा, सारे जज़्बात, क़ैदी हैं
ज़ंजीरें टूट गईं
पर आज़ादी कहाँ?
कैसे यकीन करूँ
खुद पर और तुम पर,
तुम भी सच हो
और ज़िन्दगी भी

- जेन्नी शबनम (22. 3. 2009)
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