रचती हूँ अपनी कविता
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दर्द का आलम यूँ ही नहीं होता लिखना
ज़ख़्म को नासूर बना होता है दर्द जीना
कैसे कहूँ, कब किसके दर्द को जिया
या अपने ही ज़ख़्म को छील, नासूर बनाया
ज़िन्दगी हो या कि मन की परम अवस्था
स्वयं में पूर्ण समा, फिर रचती हूँ अपनी कविता।
- जेन्नी शबनम - (12. 11. 2010)
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दर्द का आलम यूँ ही नहीं होता लिखना
ज़ख़्म को नासूर बना होता है दर्द जीना
कैसे कहूँ, कब किसके दर्द को जिया
या अपने ही ज़ख़्म को छील, नासूर बनाया
ज़िन्दगी हो या कि मन की परम अवस्था
स्वयं में पूर्ण समा, फिर रचती हूँ अपनी कविता।
- जेन्नी शबनम - (12. 11. 2010)
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