सोमवार, 12 सितंबर 2011

282. लौट चलते हैं अपने गाँव

लौट चलते हैं अपने गाँव

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मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से। 
 
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं 
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते ही हर घर उठ जाता है 
चटाई बीनती हुक्का गुड़गुड़ाती
बुढ़िया दादी धूप सेंकती है
गाँती बाँधे नन्हकी स्लेट पर पेन्सिल घिसती है। 

अजोर हुए अब तो देर हुई
बड़का बऊआ अपना बोरा-बस्ता लेकर
स्कूल न जाने की ज़िद में खड़ा है
गाँव के मास्टर साहब
आज ले ही जाने को अड़े हैं
क्या ग़ज़ब नज़ारा है, बड़ा अजब माजरा है। 

अँगने में रोज़ अनाज पसराता है
जाँता में रोज़ दाल दराता है
गेहूँ पीसने की अब बारी है
भोर होते ही रोटी भी तो पकानी है
सामने दौनी-ओसौनी जारी है
ढेंकी से धान कूटने की आवाज़ लयबद्ध आती है। 
  
खेत से अभी-अभी तोड़ी
घिउरा और उसके फूल की तरकारी
ज़माना बीता, पर स्वाद आज भी वही है
दोपहर में जन सब के साथ पनपियाई
अलुआ, नमक और अचार का स्वाद
मन में आज भी ताज़ा है। 
 
पगहा छुड़ाते धीरे-धीरे चलते बैलों की टोली
खेत जोतने की तैयारी है  
भैंसी पर नन्हका लोटता है
जब दोपहर बाद घर लौटता है। 
  
गोड़ में माटी की गंध
घूर तापते चचा की कहानी
सपनों सी रातें अब मुझे बुलाती हैं   
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं 
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अजोर - रोशनी
पहरू - रात्रि में पहरेदारी करने वाला
चटाई बीनती - चटाई बुनना
गाँती - ठण्ड से बचाव के लिए बच्चों को विशेष तरीक़े से चादर / शॉल से लपेटना
बोरा-बस्ता - बैठने के लिए बोरा और किताब का झोला
जाँता - पत्थर से बना हाथ से चलाकर अनाज पीसने का यंत्र
दराता - दरना
दौनी - धान को निकालने के लिए फ़सल एकत्रित कर उस पर बैल चलाया जाता है
ओसौनी - दौनी होने के बाद धान को अलग करने की क्रिया
ढेंकी - लकड़ी से बना यंत्र जिसे पैर द्वारा चलाया जाता है 
घिउरा - नेनुआ
जन - काम करने वाले मज़दूर / किसान
पनपियाई - दोपहर से पहले का खाना
अलुआ - शकरकंद
गोड़ - पैर
घूर - अलाव
चचा - चाचा
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- जेन्नी शबनम (जुलाई 2003)
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