गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

308. एक अदद रोटी

एक अदद रोटी

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सुबह से रात, रोज़ सबको परोसता
गोल-गोल, प्यारी-प्यारी, नरम-मुलायम रोटी
मिल जाती, काश! 
उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। 

ठिठुरती ठण्ड की मार और उस पर गर्म रोटी की चाह
चार टुकड़ों में बँट सके
ले आया चोरी से एक रोटी
ठण्डी रोटी गर्म होने लगी
लड़ पड़े सब, जो झपट ले होगी उसकी
सभी को चाहिए पूरी-की-पूरी रोटी। 

छीना-झपटी, हाथापाई
धू-धू कर जल गई
हाय री क़िस्मत
लगी न किसी के हाथ रोटी
छाती पीटो कि बदन तोड़ो
अब कल ही मिलेगी बची-खुची बासी रोटी। 

न इसके हिस्से, न उसके हिस्से
कुछ नहीं किसी के हिस्से
अरसे बाद चूल्हे ने खाई
एक अदद रोटी। 

- जेन्नी शबनम (21.12.2011)
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