गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

324. अकेले से लगे तुम

अकेले से लगे तुम

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आज जाते हुए
बहुत असहाय से दिखे तुम
कन्धों पर भारी बोझ
कुछ अपना, कुछ परायों का। 

इस जद्दोजहद में अपना औचित्य बनाए रखने का
तुम्हारा अथक प्रयास
हर विफलता के बाद भी
स्वयं को साबित करने की तुम्हारी दृढ आकांक्षा
साज़िशों को विफल करने के प्रयास में
साज़िश में उलझते
आज बहुत अकेले से लगे तुम। 

तुमको कटघरे में देखना दुर्भाग्यपूर्ण है
पर सदैव तुम कटघरे में खड़े कर दिए जाते हो
उन सब के लिए
जो तुम्हारे हिसाब से जायज़ था
जिन्हें तुम अपने पक्ष में मानते हो
वे ही तुम्हारे ख़िलाफ़ गवाही देते हैं
और सबूत भी रचते हैं। 

सही-ग़लत का निर्धारण कौन करे
परमात्मा आज कल सबके साथ नहीं
कम-से-कम उनके तो बिल्कुल नहीं
जो तुम्हारी तरह आम हैं।  

- जेन्नी शबनम (16.2.2012)
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323. सपनों को हारने लगी हूँ

सपनों को हारने लगी हूँ

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तुम्हारे लिए मुश्किलें बढ़ाती-बढ़ाती
ख़ुद के लिए मुश्किलें पैदा कर ली हूँ
पल-पल क़रीब आते-आते
ज़िन्दगी से ही क़रीबी ख़त्म कर ली हूँ,
मैं विकल्पहीन हूँ
अपनी मर्ज़ी से उस राह पर बढ़ी हूँ
जहाँ से सारे रास्ते बंद हो जाते हैं,
तुम्हारे पास तो तमाम विकल्प हैं
फिर भी जिस तरह 
तुम ख़ामोशी से स्वीकृति देते हो
बहुत पीड़ा होती है
अवांछित होने का एहसास दर्द देता है,
शायद मुझसे पार जाना कठिन लगा होगा तुम्हें
इंसानियत के नाते
दुःख नहीं पहुँचाना चाहा होगा तुमने
क्योंकि कभी तुमसे तुम्हारी मर्ज़ी पूछी नहीं
जबकि भ्रम में जीना मैंने भी नहीं चाहा था,
जानते हुए कि
सामान्य औरत की तरह मैं भी हूँ
जिसको उसके मांस के
कच्चे और पक्केपन से आँका जाता है
जिसे अपने सपनों को
एक-एक कर ख़ुद तोड़ना होता है
जिसे जो भी मिलना है
दान मिलना है
सहानुभूति मिलनी है प्रेम नहीं
फिर भी मैंने सपनों की लम्बी फ़ेहरिस्त बना ली,
एक औरत से अलग भी मैं हूँ
यह सोचने का समय तुम्हारे पास नहीं
सच है मैंने अपना सब कुछ
थोप दिया था तुम पर
ख़ुद से हारते-हारते
अब सपनों को हारने लगी हूँ,
जैसे कि जंग छिड़ गया हो मुझमें
मैं जीत नहीं सकती तो
मेरे सपनों को भी मरना होगा। 

- जेन्नी शबनम (15.2. 2012)
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