शनिवार, 12 मई 2012

345. कैसे बनूँ शायर

कैसे बनूँ शायर 

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मैं नहीं हूँ शायर 
जो शब्दों को पिरोकर कोई ख़्वाब सजाऊँ
नज़्मों और ग़ज़लों में दुनिया बसाऊँ
मुझको नहीं दिखता, चाँद में महबूब
चाँद दिखता है यों जैसे रोटी हो गोल 
मैं नहीं हूँ शायर, जो बस गीत रचूँ   
दुनिया को भूल, प्रिय की बाहों को जन्नत कहूँ

मुझको दिखती है, ज़िन्दगी की लाचारियाँ 
पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ 
क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
सरेआम बिक जाती, मिट जाती माँ की दुलारियाँ
ख़ुद को महफ़ूज़ रखने में नाकामयाब कलियाँ
मुझे दिखता है, सूखे सीने से चिपका मासूम
और भूख से कराहती उसकी माँ
वैतरणी पार कराने के लिए क़र्ज़ में डूबा 
किसी बेवा का बेटा
और वह भी, जिसे आरक्षण नाम के दैत्य ने 
कल निगल लिया   
क्योंकि उसकी जाति, उसका अभिशाप थी  
और हरजाने में उसे अपनी ज़िन्दगी देनी पड़ी

कैसे सोचूँ कि एक दिन ज़िन्दगी  
सुनहरे रथ पर चलकर पाएगी, सपनों की मंज़िल   
जहाँ दुःख-दर्द से परे कोई संसार है
मुझे दिखता है, किसी बुज़ुर्ग की झुर्रियों में 
वक़्त की नाराज़गी का दंश  
अपने कोखजनों से मिले दुत्कार और निर्भरता का अवसाद
मुझे दिखता है, उनका अतीत और वर्तमान 
जो अक्सर मेरे वर्तमान और भविष्य में तब्दील हो जाता है

मन तो मेरा भी चाहता है
तुम्हारी तरह शायर बन जाऊँ 
प्रेम-गीत रचूँ और ज़िन्दगी बस प्रेम-ही-प्रेम हो  
पर तुम ही बताओ, कैसे लिखूँ तुम्हारी तरह शायरी 
तुमने तो प्रेम में हज़ारों नज़्में लिख डालीं   
प्रेम की पराकाष्ठा के गीत रच डाले 
निर्विरोध, अपना प्रेम-संसार बसा लिया
मैं किसके लिए लिखूँ प्रेम-गीत?
नहीं सहन होता बार-बार हारना, सपनों का टूटना 
छले जाने के बाद फिर से उम्मीद जगाना
डरावनी दुनिया को देखकर 
आँखें मूँद सो जाना और सुन्दर सपनों में खो जाना

मेरी ज़िन्दगी तो यही है 
लोमड़ी और गिद्धों की महफ़िल से बचने के उपाय ढूँढूँ 
अपने अस्तित्व के बचाव के लिए 
साम, दाम, दण्ड, भेद अपनाते हुए 
अपनी आत्मा को मारकर 
इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में रोज़-रोज़ मरूँ
मैं शायर नहीं 
बन पाना मुमकिन भी नहीं  
तुम ही बताओ, कैसे बनूँ मैं शायर 
कैसे लिखूँ, प्रेम या ज़िन्दगी। 

- जेन्नी शबनम (12.5.2012)
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