शनिवार, 28 जुलाई 2012

359. साढ़े तीन हाथ की धरती

साढ़े तीन हाथ की धरती

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आकाश में उड़ते पंछी   
कटी-पतंगों की भाँति   
ज़मीन पर आ गिरते हैं। 
   
नरक के द्वार में बिना प्रवेश   
तेल की कड़ाह में जलना   
जाने किस जन्म का पाप   
इस जन्म में भोगना है। 
   
दीवार पर खूँटी से टँगी   
एक जोड़ा कठपुतली को   
जाने किस तमाशे का इन्तिज़ार है। 
   
ठहाके लगाती छवि   
और प्रसंशा में सौ-सौ सन्देश    
अनगिनत सवालों का   
बस एक मूक जवाब   
हौले-से मुस्कान है। 
   
उफ़! कोई कैसे समझे?   
अन्तरिक्ष से झाँककर देखा   
चाँद और पृथ्वी   
और उस जलती अग्नि को भी   
जो कभी पेट में जलती है   
तो कभी जिस्म को जलाती है। 
  
इस आग से पककर   
कहीं किसी कचरे के ढेर में   
नवजात का बिलबिलाना   
दोनों हाथों को बाँधकर   
किसी की उम्र की लकीरों से   
पाई-पाई का हिसाब खुरचना। 
   
ओह! तपस्या किस पर्वत पर?   
अट्टहास कानों तक पहुँच   
मन को उद्वेलित कर देता है   
टीस भी और क्रोध भी   
पर कृतघ्नता को बर्दाश्त करते हुए   
पार जाने का हिसाब-किताब   
मन को सालता है। 
   
आह! कौन है जो अडिग नहीं होता?   
साढ़े तीन हाथ की धरती   
बस आख़िरी इतना-सा ख़्वाब।    

-जेन्नी शबनम (28.7.2012) 
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