आँचल में मौसम
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तमाम रास्ते बिखरे पत्ते
सूखे चरमराते हुए
अपने अंत की कहानी कह रहे थे
मुर्झाए फूल अपनी शाख से गिरकर
अपनी निरर्थकता को कोस रहे थे
उस राह से गुज़रते हुए
न जाने क्यों
कुछ मुर्झाए फूल और पत्ते बटोर लिए मैंने
''हर जीवन का हश्र यही''
सोचते-सोचते न जाने कब
अपने आँचल की छोर में बँधी
मौसम की पर्ची मैंने हवा में उड़ा दी
वृक्ष पर अड़े पत्ते मुस्कुरा उठे
फूल की डालियों पर फूल नाच उठे
बौराई तितलियाँ मंडराने लगी
और मैं चलते-चलते
उस गर्म पानी के झील तक जा पहुँची
जहाँ अंतिम बार
तुमसे अलग होने से पहले
तुम्हारे आलिंगन में मैं रोई थी
तुमने चुप कराते हुए कहा था-
''हम कायर नहीं, कभी रोना मत,
यही हमारी तक़दीर, सब स्वीकार करो''
और तुम दबे पाँव चले गए
मैं धीमे-धीमे ज़मीन पर बैठ गई
जाते हुए भी न देखा तुम्हें
क्योंकि मैं कायर थी, रो रही थी
पर अब
अपने आँचल में मौसम बाँध रखी हूँ
अब रोना छोड़ चुकी हूँ
"अब मैं कायर नहीं!"
- जेन्नी शबनम (4. 1. 2014)
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