आज़ादी की बात
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मानो सीने के ज़ख़्म कुरेदते हो
लौ ही नहीं जलती
तो उजाले की लकीर कहाँ दिखेगी
अँधेरों की सरपरस्ती में
दीये की थरथराहट गुम हो जाएगी।
अँधेरों की सरपरस्ती में
दीये की थरथराहट गुम हो जाएगी।
पंछी के पर उगने ही कब दिए
जो न उगने पर सवाल करते हो
तमाम पहर, तमाम उम्र इबादत की
पर ख़ुदा तो तेरे शहर में नज़रबन्द है
गुहार के लिए देवता कहाँ से लाऊँ?
बदन के हर हिस्से में नंगी तलवारें घुसती हैं
लहू के कारोबार में ज़िन्दगी मिटती है
फिर भी आज़ादी की बाबत पूछते हो?
सदियों से सब सोए हैं
अपनी-अपनी तक़दीर के भरोसे
जाओ तुम सब सो जाओ, अपने-अपने महलों में
जाओ तुम सब सो जाओ, अपने-अपने महलों में
ताकि किसी का मिटना देख न सको
किसी का सिसकना सुन न सको।
किसी का सिसकना सुन न सको।
हमें इन्तिज़ार है
जाने कब दबे पाँव आ जाए आज़ादी
और हुंकार के साथ छुड़ा दे उस ज़ंजीर से
जिसने जकड़ रखा है हमारा मन
काट डाले उस ग़ुलामी को
जिससे हमारी साँसें धीरे-धीरे सिमट रही हैं।
हर रोज़ मन में एक किरण उगती है
जो आज़ादी की राह ताकती है
फिर धीरे-धीरे दम तोड़ती है
पर एक उम्मीद है, जो हारती नहीं
हर रोज़ कहती है
वह किरण ज़रूर उगेगी
जो आज़ादी को पकड़ लाएगी
फिर आज़ादी की बाबत पूछना
आज़ादी का रंग क्या और सूरत है क्या
रोटी और छत की जंग है क्या
अस्मत और क़िस्मत की आज़ादी है क्या।
आज़ादी का रंग क्या और सूरत है क्या
रोटी और छत की जंग है क्या
अस्मत और क़िस्मत की आज़ादी है क्या।
एक दिन सब बताऊँगी
जब ज़रा-सी आज़ादी जिऊँगी
फिर आज़ादी की बात करूँगी।
-जेन्नी शबनम (15.8.2014)
(स्वतंत्रता दिवस)
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