इंकार है
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तूने कहा
मैं चाँद हूँ
और ख़ुद को आफ़ताब कहा।
रफ़्ता-रफ़्ता
मैं जलने लगी
और तू बेमियाद बुझने लगा।
जाने कब कैसे
ग्रहण लगा
और मुझमें दाग़ दिखने लगा।
हौले-हौले ज़िन्दगी बढ़ी
चुपके-चुपके उम्र ढली
और फिर अमावस ठहर गया।
कल का सहर बना क़हर
जब एक नई चाँदनी खिली
और फिर तू कहीं और उगने लगा।
चंद लफ़्ज़ों में मैं हुई बेवतन
दूजी चाँदनी को मिला वतन
और तू आफ़ताब बन जीता रहा।
हाँ, यह मालूम है
तेरे मज़हब में ऐसा ही होता है
पर आज तेरे मज़हब से ही नहीं
तुझसे भी मुझे इंकार है।
न मैं चाँद हूँ
न तू आफ़ताब है
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तूने कहा
मैं चाँद हूँ
और ख़ुद को आफ़ताब कहा।
रफ़्ता-रफ़्ता
मैं जलने लगी
और तू बेमियाद बुझने लगा।
जाने कब कैसे
ग्रहण लगा
और मुझमें दाग़ दिखने लगा।
हौले-हौले ज़िन्दगी बढ़ी
चुपके-चुपके उम्र ढली
और फिर अमावस ठहर गया।
कल का सहर बना क़हर
जब एक नई चाँदनी खिली
और फिर तू कहीं और उगने लगा।
चंद लफ़्ज़ों में मैं हुई बेवतन
दूजी चाँदनी को मिला वतन
और तू आफ़ताब बन जीता रहा।
हाँ, यह मालूम है
तेरे मज़हब में ऐसा ही होता है
पर आज तेरे मज़हब से ही नहीं
तुझसे भी मुझे इंकार है।
न मैं चाँद हूँ
न तू आफ़ताब है
मुझे इन सबसे इंकार है।
- जेन्नी शबनम (20. 11. 2014)
- जेन्नी शबनम (20. 11. 2014)
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