सोमवार, 5 जनवरी 2015

481. वक़्त बेख़ौफ़ चलता रहे

वक़्त बेख़ौफ़ चलता रहे 

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वक़्त साल-दर-साल, सदी-दर-सदी, युग-दर-युग
चलता रहा, बीतता रहा, टूटता रहा
कभी ग़म गाता, कभी मर्सिया पढ़ता
कभी ख़ौफ़ के चौराहे पर काँपता
कभी मासूम इन्सानी ख़ून से रँग जाने पर
असहाय ज़ार-ज़ार रोता
कभी पर्दानशीनों की कुचली नग्नता पर बिलखता
कभी हैवानियत से हारकर तड़पता। 

ओह! 
कितनी लाचारगी, कितनी बेबसी वक़्त झेलता है
फिर चल पड़ता है लड़खड़ाता, डगमगाता
चलना ही पड़ता है उसे, हर यातनाओं के बाद। 

नहीं मालूम, थका-हारा लहूलुहान वक़्त
चलते-चलते कहाँ पहुँचेगा
न पहला सिरा याद 
न अन्तिम का कोई निशान शेष
जहाँ ख़त्म हो क़ायनात
ताकि पलभर थमकर सुन्दर संसार की कल्पना में
वक़्त भर सके एक लम्बी साँस
और कहे उन सारे ख़ुदाओं से
जिनके दीवाने कभी आदमज़ाद हुए ही नहीं
कि ख़त्म कर दो यह खेल, मिटा दो सारा झमेला
न कोई दास, न कोई शासक
न कोई दाता, न कोई याचक
न धर्म का कारोबार, न कोई किसी का पैरोकार। 

इस ग्रह पर इन्सान की खेती मुमकिन नहीं   
न ही सम्भव है कोई कारगर उपाय 
एक प्रलय ला दो कि बन जाए यह पृथ्वी
उन ग्रहों की तरह, जहाँ जीवन के नामोनिशान नहीं
तब फिर से बसाओ यह धरती
उगाओ इन्सानी फ़सल
जिनके हों बस एक धर्म
जिनकी हो बस एक राह
सर्वत्र खिले फूल-ही-फूल 
चमकीले-चमकीले तारों जैसे
और वक़्त बेख़ौफ़ ठठाकर हँसता रहे  
संसार की सुन्दरता पर मचलता रहे 
झूमते-नाचते चलता रहे 
साल-दर-साल 
सदी-दर-सदी, युग-दर-युग। 

-जेन्नी शबनम (1.1.2015)
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