मंगलवार, 21 मार्च 2017

540. नीयत और नियति

नीयत और नियति  

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नीयत और नियति समझ से परे है
एक झटके में सब बदल देती है  
ज़िन्दगी अवाक्! 
 
काँधे पर हाथ धरे चलते-चलते  
पीठ में गहरी चुभन  
अनदेखे लहू का फ़व्वारा  
काँधे पर का हाथ काँपता तक नहीं  
ज़िन्दगी हतप्रभ! 
 
सपनों के पीछे दौड़ते-दौड़ते  
जाने कितनी सदियाँ गुज़र जातीं   
पर सपने न मुठ्ठी में, न नींद में  
ज़िन्दगी रुख़्सत! 
 
सुख के अम्बार को देखते-देखते  
चकाचौंध से झिलमिल
दुःख का ग़लीचा, पाँवों के नीचे बिछ जाता  
ज़िन्दगी व्याकुल!  

पहचाने डगर पर  
ठिठकते-ठिठकते क़दम तो बढ़ते  
पर पक्की सड़क गड्ढे में तब्दील हो जाती  
ज़िन्दगी बेबस! 
 
पराए घर को सँवारते-सँवारते  
उम्र की डोर छूट जाती  
रिश्ते बेमानी हो जाते  
हर कोने में मौजूद रहकर 
हर एक इंच दूसरों का  
पराया घर, पराया ही रह जाता  
ज़िन्दगी विफल! 
 
बड़ी लम्बी कहानी सुनते-सुनते  
हर कोई भाग खड़ा होता  
अपना-पराया कोई नहीं  
मन की बात मन तक  
साँसों की गिनती थमती नहीं  
ज़िन्दगी बेदम!
  
नीयत और नियति के चक्र में  
लहूलुहान मन 
ज़िन्दगी कब तक?

-जेन्नी शबनम (21.3.2017)  
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