शुक्रवार, 22 जून 2018

575. परवरिश

परवरिश  

***  

कहीं पथरीली, कहीं कँटीली  
यथार्थ की ज़मीन बंजर होती है  
जहाँ ख़्वाहिशों के फूल उगाना  
न सहज होता है, न सरल  
परन्तु फूल उगाना लाज़िमी है  
और उसकी ख़ुशबू का बसना भी  
यही जीवन का नियम है  
और इसी में जीवन की सुन्दरता है। 
 
वक़्त आ चुका है  
जब तुम अपनी ज़मीन पर  
सपनों से सींचकर  
ख़्वाहिशों के फूल खिलाओ  
अपनी दुनिया सँवारो  
और अपनी पहचान बनाओ।  

मुझे नहीं मालूम  
वक़्त के कैनवस पर  
हमारे सम्बन्ध की तस्वीर कैसी बनेगी  
मेरी तक़दीर कैसी होगी।
  
आशंकाओं के बादल घुमड़ते रहते हैं मुझमें  
बढ़ती उम्र के साथ अशक्त होने का डर सताता है मुझे  
अकेलेपन का ख़ौफ़ अभी से डराता है मुझे  
यों जबकि साथ ही तो रहते हैं हम।  

वह भी तो मेरी ही तरह माँ थी  
जिसने हर वह जतन किए होंगे  
जो संतान की परवरिश के लिए लाज़िमी है  
पर कुछ तो कमी रह गई  
जाने क्यों संवेदनशून्यता आ गई  
तमाम आरज़ुओं के साथ  
दरवाज़े को पथराई आँखों से देखती  
अपनों की राह अगोरती वह माँ  
छह माह की मृत कंकाल बन गई।
  
मुमकिन है तुम भी मुझे बिसरा दो  
वक़्त के साथ हमारे रिश्ते भूल जाओ  
वे सारे पल भी भूल जाओ  
जब उँगली पकड़कर, तुम्हें चलना सिखाया  
हाथ पकड़कर, तुम्हें लिखना सिखाया  
शब्द-शब्द जोड़कर, तुम्हें बोलना सिखाया।  

तुम्हें तो याद ही है  
मैंने बहुत बार बेवजह तुम्हें मारा है  
दूसरों का ग़ुस्सा तुम पर निकाला है  
लेकिन तुम यह नहीं जानते  
जब-जब तुम्हें मारा मैंने  
हर उस रात तुम्हें पकड़कर, रोकर गुज़ारी मैंने। 
  
कई बार तुम्हारे हाथों को ज़ोर से झटका है  
जब एक ही शब्द को बार-बार लिखना सिखाती थी  
और तुम सही-सही लिख नहीं पाते थे  
हर उस रात तुम्हारी नन्ही हथेली को लेकर  
तमाम रात रोकर गुज़ारी मैंने। 
  
काम की भीड़ में तुम्हें खिलाना  
उफ़! कितना बड़ा काम था  
कई बार तुम्हें खाने के लिए मारा है मैंने  
और हर उस दिन मेरे मुँह में निवाला न जा सका  
भले सारा काम निपटा लिया मैंने। 
  
तुम्हारी हर एक ज़िद  
कम में ही सही, पर पूरी की मैंने  
एक पल को भी कभी  
तुम्हें अकेला न छोड़ा मैंने  
हाँ! यह ज़रूर है  
मेरे पास उन सभी लम्हों का  
कोई सुबूत नहीं है  
न मेरे प्यार का, न मेरे व्यवहार का  
न उस वक़्त का, न उन हालातों का।  

तुम अपनी कचहरी में  
चाहो तो मुझ पर मुक़दमा करो  
चाहो तो सज़ा दो  
मुझ पर इल्ज़ाम है-  
पाप किया मैंने  
तुम्हें क्यों मारा मैंने  
तुम्हें ठीक से न पाला मैंने।
  
पाप-पुण्य का फ़ैसला 
तुम ही करो  
मैं बस ख़ामोश हूँ।  

वक़्त की कोख में  
मेरे अन्त की तस्वीर बन रही होगी  
आत्मा के लिए राह बिछ रही होगी  
नहीं मालूम सिर्फ़ काँटे ही मिलेंगे या फूल भी  
पर जिस राह से भी गुज़रूँगी  
जहाँ भी पहुँचूँगी   
बस दुआ ही करूँगी। 
 
जानते हो न  
माता कभी कुमाता नहीं होती।  

-जेन्नी शबनम (22.6.2018)  
(पुत्र के 25वें जन्मदिन पर)  
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