सोमवार, 28 जनवरी 2019

603.वक़्त (चोका - 10)

वक़्त (चोका)   

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वक्त की गति   
करती निर्धारित   
मन की दशा   
हो मन प्रफुल्लित   
वक़्त भागता   
सूर्य की किरणों-सा   
मनमौजी-सा   
पकड़ में न आता   
मन में पीर   
अगर बस जाए   
बीतता नहीं   
वक़्त थम-सा जाता   
जैसे जमा हो   
हिमालय पे हिम   
कठोरता से   
पिघलना न चाहे,   
वक़्त सजाता   
तोहफ़ों से ज़िन्दगी   
निर्ममता से   
कभी देता है सज़ा   
बिना कुसूर   
वक़्त है बलवान   
उसकी मर्ज़ी   
जिधर ले के चले   
जाना ही होता   
बिना किए सवाल   
बिना दिए जवाब !   

- जेन्नी शबनम (28. 1. 2019)   

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शनिवार, 26 जनवरी 2019

602. प्रजातन्त्र

प्रजातन्त्र  
 
***   

मुझपर इल्ज़ाम है उनकी ही तरह, जो कहते हैं    
''देश के माहौल से डर लगता है''   
हाँ! मैं मानती हूँ मुझे भी अब डर लगता है   
सिर्फ़ अपने लिए नहीं   
अपनों के लिए डर लगता है। 
  
उन्हें मेरे कहे पर आपत्ति है   
उनके कहे पर आपत्ति है   
वे कहते हैं चार सालों से   
न कहीं बम विस्फोट हो रहे हैं   
न उन दिनों की तरह इमरजेन्सी है   
जब बेक़सूरों को पकड़कर जेल भेजा जाता था   
न इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद का   
सिख-विरोधी दंगा है   
जब हर एक सिख असुरक्षित था और डरा हुआ कि   
न जाने कब उनकी हत्या कर दी जाए।
   
वे कहते हैं   
यह डर उन्हें क्यों, जिनके पास धन भरपूर है   
जो जब चाहे देश छोड़कर कहीं और बस सकते हैं   
यह डर उन्हें क्यों 
जो 1975 और 1984 में ख़ामोश रहे   
तब क्यों नहीं कुछ कहा, तब क्यों नहीं डर लगा?   

मैं स्वीकार करती हूँ, यह सब दुर्भाग्यपूर्ण था   
परन्तु सिर्फ़ इन वज़हों से   
1989 का भागलपुर दंगा, 2002 का गुजरात दंगा   
या अन्य दंगा-फ़साद जायज़ नहीं हो सकता।
   
मॉब लिंचिग, बलात्कार, एसिड अटैक, हत्या   
और न जाने कितने अपराध   
हर रोज़ कुछ नए अपराध   
क्या इसके ख़िलाफ़ बोलना ग़ुनाह है?   
डर और ख़ौफ़ के साए में जी रही है प्रजा   
क्या यही प्रजातन्त्र है? 
  
जुर्म के ख़िलाफ़ बोलना अगर ग़ुनाह है   
तो मैं ग़ुनाह कर रही हूँ   
समाज में शान्ति चाहना अगर ग़ुनाह है   
तो मैं ग़ुनाह कर रही हूँ।   
मैं खुलेआम क़ुबूल कर रही हूँ   
हाँ! मुझे डर लगता है   
मुझे आज के माहौल से डर लगता है।

-जेन्नी शबनम (26.1.2019)   
(गणतन्त्र दिवस पर)
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रविवार, 20 जनवरी 2019

601. फ़रिश्ता (क्षणिका)

फ़रिश्ता     

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सुनती हूँ कि कोई फ़रिश्ता है 
जो सब का हाल जानता है 
पर मेरा? मुझे नहीं जानता वह 
पर तुम मुझे जानते हो जीने का हौसला देते हो 
जाने किस जन्म में तुम मेरे कौन थे 
जो अब मेरे फ़रिश्ता हो।   

- जेन्नी शबनम (19. 1. 2019)   
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बुधवार, 9 जनवरी 2019

600. अंतर्मन (15 क्षणिकाएँ)

अंतर्मन 

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1. 
अंतर्मन 
***   
मेरे अंतर्मन में पड़ी हैं   
ढेरों अनकही कविताएँ   
तुम मिलो कभी   
तो फ़ुर्सत में सुनाऊँ तुम्हें। 
-०-  

2.
सवाल 
***  
हज़ारों सवाल हैं मेरे अंतर्मन में   
जिनके जवाब तुम्हारे पास हैं   
तुम आओ गर कभी   
फ़ुर्सत में जवाब बताना।
-०-   

3.
प्रश्न 
*** 
मेरा अंतर्मन   
मुझसे प्रश्न करता है-   
आख़िर कैसे कोई भूल जाता है   
सदियों का नाता पलभर में,   
उसके लिए जो कभी अपना नहीं था   
न कभी होगा।
-०-   

4.
मियाद 
***   
हमारे फ़ासले की मियाद   
जाने किसने तय की है   
मैंने तो नहीं की,   
क्या तुमने? 
-०-  

5.
तय 
***   
क्षण-क्षण कण-कण   
तुम्हें ढूँढ़ती रही   
जानती हूँ मैं अहल्या नहीं कि   
तुमसे मिलना तय हो।
-०-   

6.
वापसी 
*** 
कुछ तो हुआ ऐसा    
जो दरक गया मन   
गर वापसी भी हो तुम्हारी   
टूटा ही रहेगा तब भी यह मन।
-०-   

7.
आदत 
***   
रात का अँधेरा अब नहीं डराता मुझे   
उसकी सारी कारस्तानियाँ मुझसे हार गईं   
मैंने अकेले जीने की आदत जो पाल ली।
-०-   

8.
लुका-चोरी 
***   
ढूँढ़कर थक चुकी   
दिन का सूरज, रात का चाँद   
दोनों के साथ, लुका-चोरी खेल रही थी   
वे दग़ा दे गए   
छल से मुझे तन्हा छोड़ गए।
-०-   

9.
तिजोरी
***   
अब आओ तो चलेंगे   
उन यादों के पास   
जिसे हमने छुपाया था   
समय से माँगी हुई तिजोरी में   
शायद कई जन्मों पहले।
-०-   

10.
तजरबा
***   
सोचा न था   
ऐसे तजरबे भी होंगे   
दुनिया की भीड़ में   
सदा हम तन्हा ही रहेंगे।
-०-   

11.
चुप 
***   
चुप-से दिन, चुप-सी रातें   
चुप-से नाते, चुप-सी बातें   
चुप है ज़िन्दगी
कौन करे बातें   
कौन तोड़े सघन चुप्पी।
-०-    

12. 
ग़ुस्सा 
*** 
तुमसे मिलकर जाना यह जीवन क्या है   
बेवजह ग़ुस्सा थी 
ख़ुद को ही सता रही थी   
तुम्हारी एक हँसी 
तुम्हारा एक स्पर्श 
तुम्हारे एक बोल   
मैं जीवन को जान गई।
-०-   

13. 
क्षण 
***  
वक़्त बस एक क्षण देता है   
बन जाएँ या बिगड़ जाएँ   
जी जाएँ या मर जाएँ   
उस एक क्षण को मुट्ठी में समेटना है   
वर्तमान भी वही भविष्य भी वही  
बस एक क्षण   
जो हमारा है सिर्फ़ हमारा।
-०-    

14. 
पाप-पुण्य 
***  
नज़दीकियाँ   
पाप-पुण्य से परे होती हैं   
फिर भी कभी-कभी   
फ़ासलों पे रहकर   
जीनी होती है ज़िन्दगी।
-०-   

15.
तुम 
***   
चाहती हूँ   
धूप में घुसकर तुम आ जाओ छत पर   
बड़े दिनों से मुलाक़ात न हुई   
जीभर कर बात न हुई   
यूँ भी सुबह की धूप देह के लिए ज़रूरी है   
और तुम मेरे मन के लिए। 
-०-  

- जेन्नी शबनम (9. 1. 2019)  
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मंगलवार, 8 जनवरी 2019

599. हे नव वर्ष (नव वर्ष पर 5 हाइकु) पुस्तक- 103

हे नव वर्ष 

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1.   
हे नव वर्ष   
आख़िर आ ही गए,   
पर जल्दी क्यों?   

2.   
उम्मीद जगी-   
अच्छे दिन आएँगे   
नव वर्ष में।   

3.   
मन से करो   
इस्तक़बाल करो   
नव वर्ष का।   

4.   
पिछला साल   
भूलना नहीं कभी,   
मिली जो सीख।   

5.   
प्रेम ही प्रेम   
नव वर्ष कामना,   
सब हों सुखी।   

- जेन्नी शबनम (1. 1. 2019)
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