प्रजातन्त्र
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मुझपर इल्ज़ाम है उनकी ही तरह, जो कहते हैं
''देश के माहौल से डर लगता है''
हाँ! मैं मानती हूँ मुझे भी अब डर लगता है
सिर्फ़ अपने लिए नहीं
अपनों के लिए डर लगता है।
उन्हें मेरे कहे पर आपत्ति है
उनके कहे पर आपत्ति है
वे कहते हैं चार सालों से
न कहीं बम विस्फोट हो रहे हैं
न उन दिनों की तरह इमरजेन्सी है
जब बेक़सूरों को पकड़कर जेल भेजा जाता था
न इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद का
सिख-विरोधी दंगा है
जब हर एक सिख असुरक्षित था और डरा हुआ कि
न जाने कब उनकी हत्या कर दी जाए।
वे कहते हैं
यह डर उन्हें क्यों, जिनके पास धन भरपूर है
जो जब चाहे देश छोड़कर कहीं और बस सकते हैं
यह डर उन्हें क्यों
जो 1975 और 1984 में ख़ामोश रहे
तब क्यों नहीं कुछ कहा, तब क्यों नहीं डर लगा?
मैं स्वीकार करती हूँ, यह सब दुर्भाग्यपूर्ण था
परन्तु सिर्फ़ इन वज़हों से
1989 का भागलपुर दंगा, 2002 का गुजरात दंगा
या अन्य दंगा-फ़साद जायज़ नहीं हो सकता।
मॉब लिंचिग, बलात्कार, एसिड अटैक, हत्या
और न जाने कितने अपराध
हर रोज़ कुछ नए अपराध
क्या इसके ख़िलाफ़ बोलना ग़ुनाह है?
डर और ख़ौफ़ के साए में जी रही है प्रजा
क्या यही प्रजातन्त्र है?
जुर्म के ख़िलाफ़ बोलना अगर ग़ुनाह है
तो मैं ग़ुनाह कर रही हूँ
समाज में शान्ति चाहना अगर ग़ुनाह है
तो मैं ग़ुनाह कर रही हूँ।
मैं खुलेआम क़ुबूल कर रही हूँ
हाँ! मुझे डर लगता है
मुझे आज के माहौल से डर लगता है।
-जेन्नी शबनम (26.1.2019)
(गणतन्त्र दिवस पर)
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