सोमवार, 21 सितंबर 2020

686. अल्ज़ाइमर

अल्ज़ाइमर 

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सड़क पर से गुज़रती हुई   
जाने मैं किधर खो गई    
घर, रास्ता, मंज़िल सब अनचीन्हा-सा है  
मैं बदल गई हूँ या दुनिया बदल गई है।
   
धीरे-धीरे सब विस्मृत हो रहा है   
मस्तिष्क साथ छोड़ रहा है   
या मैं मस्तिष्क की उँगली छोड़ रही हूँ। 
  
कुछ भूल जाती हूँ, तो अपनों की झिड़की सुनती हूँ   
सब कहते, मैं भूलने का नाटक करती हूँ   
कुछ भूल न जाऊँ, लिख-लिखकर रखती हूँ   
सारे जतन के बाद भी अक्सर भूल जाती हूँ   
अपने भूलने से मैं सहमी रहती हूँ   
अपनी पहचान खोने के डर से डरी रहती हूँ।
   
क्यों सब कुछ भूलती हूँ, मैं पागल तो नहीं हो रही?   
मुझे कोई रोग है क्या, कोई बताता क्यों नहीं?   
यों ही कभी एक रोज़   
गिनती के सुख और दुःखों के अम्बार भूल जाऊँगी   
ख़ुद को भूल जाऊँगी, बेख़याली में गुम हो जाऊँगी   
याद करने की जद्दोजहद में हर रोज़ तड़पती रहूँगी   
फिर से जीने को हर रोज़ ज़रा-ज़रा मरती रहूँगी
मुमकिन है, मेरा जिस्म ज़िन्दा तो रहे   
पर कोई एहसास, मुझमें ज़िन्दा न बचे। 
   
मेरी ज़िन्दगी अब अपनों पर बोझ बन रही है   
मेरी आवाज़ धीरे-धीरे ख़ामोश हो रही है   
मैं हर रोज़ ज़रा-ज़रा गुम हो रही हूँ   
हर रोज़ ज़रा-ज़रा कम हो रही हूँ।   
मैं सब भूल रही हूँ   
मैं धीरे-धीरे मर रही हूँ।   

-जेन्नी शबनम (21.9.2020)
(विश्व अल्ज़ाइमर दिवस) 
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मंगलवार, 15 सितंबर 2020

685. यादें, न आओ (यादें पर 10 हाइकु) पुस्तक -117,118

 यादें, न आओ

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1. 
मीठी-सी बात   
पहली मुलाक़ात   
आई है याद।  

2. 
दुःखों का सर्प   
यादों में जाके बैठा   
डंक मारता।     

3. 
गहरे खुदे   
यादों की दीवार पे   
ज़ख़्मों के निशाँ।     

4. 
तुम भी भूलो,   
मत लौटना यादें,   
हमें जो भूले।   

5. 
पराए रिश्ते   
रोज़ याद दिलाते   
देते हैं टीस।     

6. 
रोज़ कहती   
यादें बचपन की-   
फिर से जी ले।     

7. 
दिल दुखाते   
छोड़ गए जो नाते,   
आती हैं याद।     

8. 
पीछा करता,   
भोर-साँझ-सा चक्र   
यादों का चक्र।     

9. 
यादों का पंछी   
दाना चुगने आता   
आवाजें देता।     

10. 
दुःख की बातें,   
यादें, न आओ रोज़,   
जीने दो मुझे।     

- जेन्नी शबनम (15. 9. 2020)
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बुधवार, 9 सितंबर 2020

684. बारहमासी

बारहमासी

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रग-रग में दौड़ा मौसम   
रहा न मन अनाड़ी   
मौसम का है खेल सब   
हम ठहरे इसके खिलाड़ी।   

आँखों में भदवा लगा   
जब आया नाचते सावन   
जीवन में उगा जेठ   
जब सूखा मन का आँगन।   

आया फगुआ झूम-झूमके   
तब मन हो गया बैरागी   
मुँह चिढ़ाते कार्तिक आया   
पर जली न दीया-बाती।   

समझो बातें ऋतुओं की   
कहे पछेया बासन्ती   
मन चाहे बेरंग हो, पर   
रूप धरो रंग नारंगी।   

पतझड़ हो या हरियाली   
हँसी हो बारहमासी   
मन में चाहे अमावस हो   
जोगो सदा पूरनमासी।   

-जेन्नी शबनम (9.9.2020) 
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गुरुवार, 3 सितंबर 2020

683. परी

परी

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दुश्वारियों से जी घबराए   
जाने क़यामत कब आ जाए   
मेरे सारे राज़, तुम छुपा लो जग से   
मेरा उजड़ा मन, बसा लो मन में।   
पूछे कोई कि तेरे मन में है कौन   
कहना कि एक थी परी, ग़ुलाम देश की रानी   
अपने परों से उड़कर, जो मेरे सपने में आई   
किसी से न कहना, उस परी की कहानी   
जो एक रोज़ मिली तुमको, डरती हुई   
खोकर आज़ादी तड़पती हुई।   
लहू से लथपथ, जीवन से विरक्त   
किसी ने छला था, बड़ा उसका मन   
पंख थे दोनों उसके कतरे हुए   
आँखें थीं बंद, पर आँसू लुढ़कते रहे   
होठों पे चुप्पी और सिसकी थमती नहीं   
उफ़! बदहवास, बड़ी थी बदहाल   
उसके मन में थे ढेरों मलाल   
कह गई मुझसे वो अपना हाल   
जीवन बीता था बनकर सवाल   
ले लिया वादा कि लेना न नाम।   
परी थी वो, मगर थी ग़ुलाम   
अपनों ने छीने थे सारे अरमान   
साँसों पर बंदिश, सपनों पर पहरे   
ऐसे में भला, कोई कैसे जीए?   
ज़ख़्मी तन और घायल मन   
फ़ना हो गई, हर राज़ कहकर   
रह गई मेरे मन में कहानी बनकर   
सच उसका, मुझे कहना नहीं   
वो दे गई, ये कैसी मज़बूरी।   
हाँ! सच है, वो परी न थी   
न किसी के सपनों की रानी   
वह थी थकी-हारी, टूटी एक नारी   
जो सदा रही सबके लिए बेमानी   
नहीं है कोई अब उसकी निशानी।   
ओह! उसने कहा था राज़ न खोलना   
उसकी इज़्ज़त अपने तक रखना,   
ना-ना वो थी परी,ग़ुलाम देश की रानी   
अपने परों से उड़कर, जो मेरे सपने में आई।   

- जेन्नी शबनम (3. 9. 2020)
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