शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

647. फ़ितरत

फ़ितरत 

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थोड़ा फ़लसफ़ा थोड़ी उम्मीद लेकर 
चलो फिर से शुरू करते हैं सफ़र 
जिसे छोड़ा था हमने तब 
जब ज़िन्दगी बहुत बेतरतीब हो गई थी 
और दूरी ही महज़ एक राह बची थी 
साथ न चलने और साथ न जीने के लिए, 
साथ सफ़र पर चलने के लिए 
एक दूसरे को राहत देनी होती है 
ज़रा-सा प्रेम, ज़रा-सा विश्वास चाहिए होता है 
और वह हमने खो दिया था 
ज़िन्दगी को न जीने के लिए 
हमने ख़ुद मज़बूर किया था, 
सच है बीती बातें न भुलाई जा सकती हैं 
न सीने में दफ़न हो सकती हैं 
चलो, अपने-अपने मन के एक कोने में 
बीती बातों को पुचकारकर सुला आते हैं 
अपने-अपने मन पर एक ताला लगा आते हैं, 
क्योंकि अब और कोई ज़रिया भी तो नहीं बचा 
साँसों की रवानगी और समय से साझेदारी का 
अब यही हमारी ज़िन्दगी है और 
यही हमारी फ़ितरत भी। 

- जेन्नी शबनम (20. 2. 2020)
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