स्त्री हूँ
*******
1.
स्त्री हूँ
***
स्त्री हूँ, वजूद तलाशती
अपना एक कोना ढूँढती
अपनों का ताना-बाना जोड़ती
यायावरता मेरी पहचान बन गई है
शनै-शनै मैं खो रही हूँ मिट रही हूँ
पर मिटना नहीं चाहती
स्त्री हूँ, स्त्री बनकर जीना चाहती हूँ।
2.
अकेली
***
रह जाती हूँ
बार-बार हर बार
बस अपने साथ
मैं, नितांत अकेली।
3.
भूल जाओ
***
सपने तो बहुत देखे
पर उसे उगाने के लिए
न ज़मीन मिली न मैंने माँगी
सपने तो सपने हैं सच कहाँ होते हैं
बस देखो और भूल जाओ।
4.
छलाँग
***
आसमान की चाहत में
एक ऊँची छलाँग लगाई मैंने
भर गया आसमान मुट्ठी में
पाँव के नीचे लेकिन ज़मीं ना रही।
5.
ज़िन्दगी जी ली
***
ज़िंदा रहने के लिए
सपनों का मर जाना बेहद ख़तरनाक है
मालूम है फिर भी एक-एककर
सारे सपनों को मार दिया
ख़ुद ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारी
और ज़िन्दगी जी ली मैंने।
6..
हँस पड़ी वह
***
वह हँसी, वह बोली
इतना दंभ, इतनी हिमाक़त
उसे मर्यादित होना चाहिए
उसे क्षमाशील होना चाहिए
उसकी जाति का यही धर्म है
पर अब अधर्मी होना स्वीकार है
यही एक विकल्प है
आज फिर हँस पड़ी मैं।
7.
जर्जर
***
आख़िरकार मैं घबराकर
घुस गई कमरे के भीतर
तूफ़ान आता, कभी जलजला
हर बार ढहती रही, बिखरती रही
पर जब भी खिड़की से बाहर झाँका
साबुत होने के दम्भ के साथ
खंडहर नहीं छुपा सकता, काल के चक्र को
अंततः सबने देखा झरोखे से झाँकती, जवान काया
जो अब डरावनी और जर्जर है।
8.
बाँझ
***
मन में अब कुछ नहीं उपजता
न स्वप्न न कामना
किसी अपने ने पीछे से वार किया
हर रोज़ बार-बार हज़ार बार
कोमल मन खंजर की वार से बंजर हो गया है
मेरा मन अब बाँझ है।
9.
खुदाई ***
जाने क्यों, ज़माना बार-बार खुदाई करता है
गहरी खुदाई पर, मन ने हरकत कर ही दी
दिल पर खुदी दर्द की तहरीर
ज़माने ने पढ़ ली और अट्टहास किया
जाने कितनी सदियों से, सब कुछ दबा था
अँधेरी गुफ़ाओं में, तहख़ाने के भीतर
अब आँसुओं का सैलाब है
जो झील बन चुका है।
10.
जबरन
***
अतीत की बेवकूफ़ियाँ
मन का पछतावापन
गाहे-बगाहे, चाहे न चाहे
वक़्त पाते ही बेधड़क घुस आता है
उन सभासदों की तरह जबरन
जिनका उस क्षेत्र में प्रवेश-निषेध है
न हँसने देता है न रोने देता है
और झिंझोड़कर रख देता है
पूरा का पूरा वजूद!
- जेन्नी शबनम (2. 12. 2020)
______________________