सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

739. अलगनी

अलगनी 

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हर रोज़ थक-हारकर टाँग देती हूँ ख़ुद को खूँटी पर   
जहाँ से मौन होकर देखती-सुनती हूँ, दुनिया का जिरह   
कभी-कभी जीवित महसूस करने के लिए   
ख़ुद को पसार आती हूँ, अँगना में अलगनी पर   
जहाँ से घाम मेरे मन में उतरकर 
हर ताप को सहने की ताक़त देता है   
और हवा देश-दुनिया की ख़बर सुनाती है। 
   
इस असंवेदी दुनिया का हर दिन 
ख़ून में डूबा होता है   
जाति-धर्म के नाम पर क़त्ल 
मन-बहलावा-सा होता है   
स्त्री-पुरुष के दो संविधान 
इस युग के विधान की देन है   
हर विधान में दोनों की तड़प   
अपनी-अपनी जगह जायज़ है। 
   
क्रूरता का कोई अन्त नहीं दिखता   
अमन का कोई रास्ता नहीं सूझता    
संवेदनाएँ सुस्ता रही हैं किसी गुफा में   
जिससे बाहर आने का द्वार बन्द है   
मधुर स्वर या तो संगीतकार के ज़िम्मे है   
या फिर कोयल की धरोहर बन चुकी है। 
   
भरोसा? ग़ैरों से भले मिल जाए   
पर अपनों से...ओह!
   
बहुत जटिलता, बहुत कुटिलता   
शरीर साबुत बच भी जाए    
पर अपनों के छल से मन छिलता रहता है   
दीमक की भाँति, पीड़ा तन-मन को 
अन्दर से खोखला करती रहती है। 
   
ज़िन्दगी पल-पल बेमानी हो रही है   
छल, फ़रेब, क्रूरता, मज़लूमों की पीड़ा   
दसों दिशाओं से चीख-पुकार गूँजती रहती है 
मन असहाय, सब कुछ असह्य लगता है   
कोई गुहार करे भी तो किससे करे? 
  
कुछ ख़ास हैं, कुछ शासक हैं
अधिकांश शोषित हैं   
किसी तरह बचे हुए कुछ आम लोग भी हैं   
जो मेरी ही तरह आहें भरते हुए 
खूँटी पर ख़ुद को रोज़ टाँग देते हैं   
कभी-कभी कोटर से निकल 
अलगनी पर पसरकर जीवन तलाशते हैं। 
   
बेहतर है, मैं खूँटी पर यों ही रोज़ लटकती रहूँ   
कभी-कभी जीवित महसूस करने के लिए   
धूप में अलगनी पर ख़ुद को टाँगती रहूँ   
और ज़माने के तमाशे देख 
ज्ञात को कोसती रहूँ।   

-जेन्नी शबनम (20.2.2022)
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