बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

26. ख़ुदा की नाइन्साफ़ी

ख़ुदा की नाइन्साफ़ी 

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ख़ुदा ने बनाए दो इन्सान, स्त्री और मर्द दो जात
सब कुछ बाँटना था आधा-आधा 
जी सकें प्यार से जीवन पूरा
पर ख़ुदा भी तो मर्द जात था, नाइन्साफ़ी कर गया
सुख-दुःख के बँटवारे में, बेईमानी कर गया

जिस्म और ताक़त का मसला
उसके समझ से परे रहा
स्त्री को जिस्म, जज़्बात और बुत बन जाने का नसीब दिया
मर्द को ताक़त, तक़दीर और हुकूमत करने का हक़ दिया

ऐ ख़ुदा! मर्द की इस दुनिया से बाहर निकल
ख़ुदा नहीं, इन्सान बनकर इस जहान को देख। 

क्यों नहीं काँपती रूह तुम्हारी?
जब तुम्हारी बसाई दुनिया की स्त्री बिलखती है
युगों से तड़पती कराह रही है
ख़ामोशी से सिसकती, ज़ख़्म सिलती है

ऐ ख़ुदा! तुम मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा में बँटे, आराध्य बने बैठे हो
नासमझों की भीड़ में मूक बने, सदियों से तमाशा देखते हो। 

क्या तुम्हें दर्द नहीं होता?
जब अजन्मी कन्या मरती है
जब नई ब्याहता जलती है
जब नारी की लाज उघड़ती है
जब स्त्री की दुनिया उजड़ती है
जब महिला सवालों की ज़िन्दगी से घबराकर
मौत के गले लगती है

ऐ ख़ुदा! मैं मग़रूर ठहरी, नहीं पूजती तुमको
मेरी न सुनो, कोई बात नहीं 
उनकी तो सुनो, जो तुमसे आस लगाए युगों से पूजते हैं
तुम्हारे सज्दे में करोड़ों सिर झुकते हैं
जो तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा में जान लेते और गँवाते हैं

ऐ ख़ुदा! क्या तुम संवेदना-शून्य हो या अस्तित्वहीन हो?
तुम्हारी आस्था में लोग भ्रमित और चेतना-विहीन हो गए हैं
क्या समझूँ, किसे समझाऊँ, किसी को कैसे करवाऊँ 
तुम्हारे पक्षपात और निरंकुशता का भान। 

मेरे मन का द्वंद्व दूर हुआ, समझ गई तुम्हारा रूप
तुम कोई उद्धारक नहीं और न हो शक्ति के अवतार
तुम हो बस धर्म-ग्रंथों के पात्र मात्र। 

- जेन्नी शबनम (7.9.2008)
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