बुधवार, 24 जून 2009

64. कृष्ण! एक नई गीता लिखो

कृष्ण! एक नई गीता लिखो

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फ़र्क़ नहीं पड़ता तुम्हें 
जब निरीह मानवता, बेगुनाह मरती है
फ़र्क़ पड़ता है तुम्हें 
जब कोई तुम्हारे आगे सिर नहीं नवाता है  
जाने कितना कच्चा धर्म है तुम्हारा 
किसी की अवहेलना से उबल जाता है
निरपराधों की आहुति से मन नहीं भरता 
अबोधों का बलिदान चाहता है। 

जो मानवता के कलंक हैं 
उन पर अपनी कृपा दिखाते 
जो इन्सानी धर्म निभाते, उन्हें जीते-जी नरक दिखाते 
तुमने कहा था, जो तुम चाहो वही होता 
तुम्हारे इशारे से चलती है दुनिया
तुम्हारी इच्छा के विपरीत कोई क्षण भी न गुज़रता 
न दुनिया का दस्तूर है बदलता। 

फिर क्या समझूँ, ये तुम्हारी लीला है?
हिन्सा और अत्याचार का ये तुम्हें कैसा नशा है?
विपदाओं के पहाड़ तले 
दिलासा का झूठा भ्रम क्यों देते हो?
पाखण्डी धर्म-गुरुओं की ऐसी क़ौम क्यों उपजाते हो?

कैसे कहते हो, कलियुग में ऐसा ही घोर अनर्थ होगा
क्या तुम्हारे युग में आतंक और अत्यचार न हुआ था?
तुम तो ईश्वर हो 
फिर क्यों जन्म लेना पड़ा तुम्हें सलाख़ों के अन्दर 
कहाँ थी तुम्हारी शक्ति 
जब तुम्हारी नवजात बहनों की निर्मम हत्या होती रही?

स्त्री को उस युग में भी 
एक वस्तु बनाकर पाँच मर्दों में बाँट दिया
अर्धनग्न नारी को जग के सामने शर्मसारकर 
ये कैसा खेल दिखाया
कौरव-पाण्डव में युद्ध करवाकर 
रिश्तों में दुश्मनी का पाठ पढ़ाया 
अपनों की हत्या करने का 
संसार को भयावह रूप दिखाया। 

क्या और कोई तरीक़ा नहीं था?
रिश्तों की परिभाषा का
जीवन के दर्शन का
समाज के उद्धार का
विश्व के विघटन का
तुम्हारी शक्ति का
उस युग के अन्त का। 

धर्म-जाति सब बँट चुके, रिश्तों का भी क़त्ल हुआ
तुम्हारी सत्ता में था अँधियारा फैला 
फिर मानव से कैसे उम्मीद करें?
द्वापर में जो धर्म था, वह तुम्हारे समय का सत्य था
अब अपनी गीता में इस कलियुग की बात कहो 

कृष्ण! आओ! इस युग में आकर इन्सानी धर्म सिखाओ
अवतरित होकर एक बार फिर जगत् का उद्धार करो
प्रेम-सद्भाव का संसार रचाकर एक नया युग बसाओ
आज के युग के लिए समकालीन एक नई गीता लिखो 

- जेन्नी शबनम (24.6.2009)
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