इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं
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वो गुल्लक फोड़ दी
जिसमें एक पैसे दो पैसे, मैं भरती थी,
तीन पैसे और पाँच पैसे भी थे, थोड़े उसमें
दस पैसे भी कुछ, बचाकर रखी थी उसमें,
सोचती थी, ख़ूब सारे सपने ख़रीदूँगी इससे
इत्ते ढेर सारे पैसों में तो, ढेरों सपने मिल जाएँगे।
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वो गुल्लक फोड़ दी
जिसमें एक पैसे दो पैसे, मैं भरती थी,
तीन पैसे और पाँच पैसे भी थे, थोड़े उसमें
दस पैसे भी कुछ, बचाकर रखी थी उसमें,
सोचती थी, ख़ूब सारे सपने ख़रीदूँगी इससे
इत्ते ढेर सारे पैसों में तो, ढेरों सपने मिल जाएँगे।
बचपन की ये अनमोल पूँजी
क्या यादों से भी चली जाएगी?
अपनी उसी चुनरी में बाँध दी
जिसे ओढ़ पराये देश आई थी,
अपने इस कुबेर के ख़जाने को टीन की पेटी
जो मेरी माँ से मिली थी, उसमें छुपा लाई थी,
साथ में उन यादगार लम्हों को भी
जब एक-एक पैसे, गुल्लक में डालती थी,
सोचती थी, ख़ूब सारा सपना खरीदूँगी
जब इस घर से उस घर चली जाऊँगी।
अब क्या करूँ इन पैसों का?
मिटटी के गुल्लक के टूटे टुकड़ों का?
पैसों का अम्बार और गुल्लक के छोटे-छोटे लाल टुकड़े
बार-बार अँचरा के गाँठ खोल निहारती हूँ,
इकन्नी-दुअन्नी में भी कहीं सपने बिकते हैं
जब चाह पालती हूँ, ख़ुद से हर बार पूछती हूँ,
नहीं ख़रीद पाई मैं, आज तक एक भी सपना
बचपन का जोगा पैसा
अब चलन में जो नहीं रहा।
चलन में तो, मैं भी न रही अब
पैसों के साथ ख़ुद को, बाँध ही दूँ अब
चलन से मैं भी उठ गई, और ये पैसे भी मेरे
अच्छा है, एक साथ दोनों चलन में न रहे
गुल्लक और पैसे, मेरे सपनों की यादें हैं
एक ही चुनरी में बँधे, सब साथ जीते हैं
उस टीन की पेटी में, हिफ़ाज़त से सब बंद है
मेरे पैसे, मेरे सपने, गुल्लक के टुकड़े और मैं।
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पेटी - बक्सा
जोगा - इकत्रित / संजोया
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- जेन्नी शबनम (20. 08. 2010)
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ikanni-duanni aur main chalan mein nahin
*******
vo gullak phod di
jismein ek paise do paise, main bhartee thee
teen paise aur paanch paise bhi they, thode usmen
dus paise bhi kuchh, bachaakar rakhi thi usmen,
sochti thi, khoob saare sapne kharidungi isase
itte dher saare paison men to, dheron sapne mil jayenge.
bachpan ki ye anmol punji
kya yaadon se bhi chali jaayegi?
apni usi chunri men baandh di
jise odh paraaye desh aai thi,
apne is kuber ke khajane ko teen kee peti
jo meri maa se mili thee, usmein chhupa laayee thee,
saath mein un yaadgaar lamhon ko bhi
jab ek-ek paise, gullak mein daalti thee,
sonchti thee, khoob saara sapna kharidungi
jab is ghar se us ghar chali jaaungi.
ab kya karun is paiso ka?
mitti ke gullak ke toote tukdon ka?
paison ka ambaar aur gullak ke chhote chhote laal tukade
baar baar anchraa ke gaanth khol niharati hun,
ikanni-duanni mein bhi kahin sapne bikate hain
jab chaah paalti hun, khud se har baar puchhti hun,
nahin kharid paai main, aaj tak ek bhi sapnaa
bachpan ka joga paisa
ab chalan men jo nahin raha.
chalan mein to, main bhi na rahi ab,
paison ke sath khud ko, baandh hi dun ab
chalan se main bhi uth gaee, aur ye paise bhi mere
achchha hai, ek sath donon chalan mein na rahe
gullak aur paise, mere sapnon ki yaadein hain
ek hin chunri men bandhe, sab saath jite hain
us teen kee peti mein, hifaazat se sab band hai
mere paise, mere sapne, gullak ke tukde aur main.
- Jenny Shabnam (20. 8. 2010)
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- जेन्नी शबनम (20. 08. 2010)
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ikanni-duanni aur main chalan mein nahin
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vo gullak phod di
jismein ek paise do paise, main bhartee thee
teen paise aur paanch paise bhi they, thode usmen
dus paise bhi kuchh, bachaakar rakhi thi usmen,
sochti thi, khoob saare sapne kharidungi isase
itte dher saare paison men to, dheron sapne mil jayenge.
bachpan ki ye anmol punji
kya yaadon se bhi chali jaayegi?
apni usi chunri men baandh di
jise odh paraaye desh aai thi,
apne is kuber ke khajane ko teen kee peti
jo meri maa se mili thee, usmein chhupa laayee thee,
saath mein un yaadgaar lamhon ko bhi
jab ek-ek paise, gullak mein daalti thee,
sonchti thee, khoob saara sapna kharidungi
jab is ghar se us ghar chali jaaungi.
ab kya karun is paiso ka?
mitti ke gullak ke toote tukdon ka?
paison ka ambaar aur gullak ke chhote chhote laal tukade
baar baar anchraa ke gaanth khol niharati hun,
ikanni-duanni mein bhi kahin sapne bikate hain
jab chaah paalti hun, khud se har baar puchhti hun,
nahin kharid paai main, aaj tak ek bhi sapnaa
bachpan ka joga paisa
ab chalan men jo nahin raha.
chalan mein to, main bhi na rahi ab,
paison ke sath khud ko, baandh hi dun ab
chalan se main bhi uth gaee, aur ye paise bhi mere
achchha hai, ek sath donon chalan mein na rahe
gullak aur paise, mere sapnon ki yaadein hain
ek hin chunri men bandhe, sab saath jite hain
us teen kee peti mein, hifaazat se sab band hai
mere paise, mere sapne, gullak ke tukde aur main.
- Jenny Shabnam (20. 8. 2010)
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बचपन का जोगा कुछ भी नहीं रहा| यह कविता इस कटु सत्य से हमें परिचित कराती है.गुल्लक तो महज़ एक बिब है. अब चीज़ें महज़ स्म्रतियों के लिए रह गयी हैं शेष..
जवाब देंहटाएंसमय हो यदि तो
माओवादी ममता पर तीखा बखान ज़रूर पढ़ें: http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html
चलन में तो, मैं भी न रही अब
जवाब देंहटाएंपैसों के साथ ख़ुद को, बाँध हीं दूँ अब,
चलन से मैं भी उठ गई, और ये पैसे भी मेरे
अच्छा है, एक साथ दोनों चलन में न रहे,
-बहुत जबरदस्त भाव..
गुल्लक और पैसे, मेरे सपनों की यादें हैं
जवाब देंहटाएंएक हीं चुंदरी में बंध, सब साथ जीते हैं,
उस टीन की पेटी में, हिफाज़त से सब बंद है
मेरे पैसे, मेरे सपने, गुल्लक के टुकड़े और मैं|
सच कहा आपने एक ही चुंदरी में बंध सपने और हम सब साथ रहते हैं...जो अब चलन में नहीं हैं.बहुत गहरी सोच को उकेरा है.
आह ही तो निकल गयी इस रचना को पढ़ कर.
हाँ एक सुझाव है ..इन सिक्को को अभी और संभाल कर रखिये हमारे बच्चो के बच्चे जब इन पौराणिक सिक्को को देखेंगे तो उन्हें पुराने सिक्को का ज्ञान तो होगा. कहीं किसी म्युसियम में देखने की बजाये अपने घर में देखेंगे और तब उनके चेहरों पर जो खुशी होगी शायेद उस से हमारा आपका मन कुछ सुकून पा जायेगा.
Ye sab yaadain hi hain jo ek samay baad jeene ka sahara hain....
जवाब देंहटाएंkavita ke shabdon aur bhavon ne har Rag ko chhu liya....
गुल्लक और पैसे, मेरे सपनों की यादें हैं
एक हीं चुंदरी में बंध, सब साथ जीते हैं,
AB MAIN KYA KAHUN.. ABHI ABHI JAGJEET JI KI GAZAL SUN RAH THA , " WO KAGAZ KI KASHTI " AUR ABHI AAPKI RACHNA PADHA.. BACHPAN KI YAADE ..AAPNE APNE SHABDO SE JAADU KAR DIYA HAI ..
जवाब देंहटाएंVIJAY
आपसे निवेदन है की आप मेरी नयी कविता " मोरे सजनवा" जरुर पढ़े और अपनी अमूल्य राय देवे...
http://poemsofvijay.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html
आदरणीया ज़ेन्नी शबनम जी
जवाब देंहटाएंसादर अभिवादन !
इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं…
कितनी भावनाओं से भरी , मर्म को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने !
पता नहीं , एक नारी द्वारा लिखे जाने के कारण से बचपन की स्मृतियों को संजोये हुई इस कविता के अर्थ बहुत परिवर्तित हुए हैं या नहीं …
लेकिन , काफी कुछ मेरी बचपन की भी स्मृतियों की अनुभूतियां मिलने के कारण मुझे इस कविता से अपनापन और गहरा जुड़ाव महसूस हो रहा है ।
एक , दो , तीन पैसे के सिक्के आज की पीढ़ी के लिए तो कपोल कल्पना की बात ही है ।
… लेकिन इनका सच और उस सच से जुड़ी हज़ारों स्मृतियां आपने याद दिला कर बहुत भावुक कर दिया है मुझको ।
… और गुल्लक के टुकड़े ! घायल की गत घायल जाने …
कविता की परिभाषा से बहुत ऊंची कविता के लिए नमन करता हूं …
सादर्…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
भावपूर्ण कविता, दिल को छू गई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति, दिल को छू गई।
जवाब देंहटाएं