शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

191. न आओ तुम सपनों में

न आओ तुम सपनों में

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क्यों आते हो सपनों में बार-बार
जानते हो न मेरी नियति
क्यों बढ़ाते हो मेरी मुश्किलें
जानते हो न मेरी स्थिति

विषमताएँ मैंने ख़ुद नहीं ओढ़ी जानेमन
न कभी चाहा कि ऐसा जीवन पाऊँ
मैंने तो अपनी परछाई से भी नाता तोड़ लिया
जीवन के हर रंग से मुँह मोड़ लिया

कुछ सवाल होते हैं
पर अनपूछे
जवाब भी होते हैं
पर अनकहे
समझ जाओ न मेरी बात
बिन कहे मेरी हर बात

न दिखाओ दुनिया की रंगीनी
रहने दो मुझे मेरे जागते जीवन में
मुमकिन नहीं कि तुम्हें सपने में देखूँ
न आया करो मेरे हमदम मेरे सपनों में

- जेन्नी शबनम (3. 12. 2010)
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10 टिप्‍पणियां:

  1. क्यों आते हो सपनों में बार बार
    जानते हो न मेरी नियति,
    क्यों बढ़ाते हो मेरी मुश्किलें
    जानते हो न मेरी स्थिति !

    बहूत अच्छी तरह से मनन के भावों को बयान किया है | बधाई |

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  2. मुमकिन नहीं कि तुम्हें सपने में देखूँ
    न आया करो मेरे हमदम मेरे सपनों में !
    Ye bhi kaisi binati hai?

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  3. विषमताएं मैंने ख़ुद
    नहीं ओढ़ी जानेमन,
    न कभी चाहा कि
    ऐसा जीवन पाऊं,
    मैंने तो अपनी परछाई से भी
    नाता तोड़ लिया,
    जीवन के हर रंग से
    मूँह मोड़ लिया !
    ab aise me kuch kahna kya , ek khamoshi si hai, sun sako to suno

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  4. विषमताएं मैंने ख़ुद
    नहीं ओढ़ी जानेमन,
    शायद पहली बार आपके व्लाग देखा है गलती का पछतावा रहेगा |वाह रे मज़बूरी ,सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई

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  5. आदरणीय जेन्नी शबनम जी
    नमस्कार !
    बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों....बेहतरीन भाव....खूबसूरत कविता...
    "माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...

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  6. क्यों आते हो सपनों में बार बार
    जानते हो न मेरी नियति,
    क्यों बढ़ाते हो मेरी मुश्किलें
    जानते हो न मेरी स्थिति !

    mann ke bhaw, kalambaddh ho gaye:)

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