गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

236. लम्बी सदी बीत रही है (क्षणिका)

लम्बी सदी बीत रही है

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सीली-सीली-सी पत्तियाँ सुलग रही हैं
जैसे दर्द की एक लम्बी सदी धीरे-धीरे गुज़र रही है
तपन जेठ की झुलसाती गर्म हवाएँ
फिर भी पत्तियाँ सील गईं
ज़िन्दगी भी ऐसे ही सील गई
धीरे-धीरे सुलगते-सुलगते ज़िन्दगी अब राख बन रही है
दर्द की एक लम्बी सदी जैसे बीत रही है

- जेन्नी शबनम (27. 4. 2011)
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7 टिप्‍पणियां:

  1. "सीली-सीली पत्तियाँ
    सुलग रही है
    जैसे दर्द की एक लम्बी सदी
    धीरे-धीरे
    गुज़र रही है,
    तपन जेठ की
    झुलसाती गर्म हवाएँ
    फिर भी पत्तियाँ सील गईं"दर्द की लम्बी नदी की कसक और सीली पत्तियों का सुलगना दोनों में अद्भुत साम्य है । जीवन के विभिन्न अनुभव और विरोधाभासों को आपने मुखरित कर दिया है।

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  2. लंबी सदी बीत रही है-इस कविता के एक-एक अल्फाज मन के संवेदनशील तारों को झंकृत कर गए।जिसका तन और मन सुंदर होता है इसके विचार भी सुंदर होते है ।बहुत ही सुंदर भावों से पिरोई गयी कविता के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।
    "दीपक की तरह खुद को जलाते रहे हैं हम,
    गैरों की जिंदगी को सजाते रहें हैं हम।"
    मेरे पोस्ट पर आपका बेसव्री से इंतजार गहेगा।
    धन्यवाद।

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  3. पीडा का मार्मिक चित्रण्।

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  4. ज़िन्दगी भी ऐसे हीं सील गई,
    धीरे धीरे सुलगते सुलगते
    ज़िन्दगी
    अब राख बन रही है
    दर्द की एक लम्बी सदी
    जैसे बीत रही है|
    अच्छी रचना...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.

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