मेरे मीत
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देखती हूँ तुम्हें
चाँद की काया पर
हर रोज़ जब भी चाहा कि देखूँ तुम्हें
पाया है तुम्हें
चाँद के सीने पर।
तुम मेरे हो और मेरे ईश भी
तुम मेरे हो और मेरे मीत भी
तुम्हारी छवि में मैंने खुदा को है पाया
तुम्हारी छवि में मैंने खुद को है पाया।
कभी चाँद के दामन से
कुछ रौशनी उधार माँग लाई थी
और उससे तुम्हारी तस्वीर
उकेर दी थी चाँद पर
जब जी चाहता है मिलूँ तुमसे
देखती हूँ तुम्हें चाँद की काया पर।
- जेन्नी शबनम (8 फ़रवरी, 2009)
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देखती हूँ तुम्हें
चाँद की काया पर
हर रोज़ जब भी चाहा कि देखूँ तुम्हें
पाया है तुम्हें
चाँद के सीने पर।
तुम मेरे हो और मेरे ईश भी
तुम मेरे हो और मेरे मीत भी
तुम्हारी छवि में मैंने खुदा को है पाया
तुम्हारी छवि में मैंने खुद को है पाया।
कभी चाँद के दामन से
कुछ रौशनी उधार माँग लाई थी
और उससे तुम्हारी तस्वीर
उकेर दी थी चाँद पर
जब जी चाहता है मिलूँ तुमसे
देखती हूँ तुम्हें चाँद की काया पर।
- जेन्नी शबनम (8 फ़रवरी, 2009)
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bhut khubsurat aur pyari rachna....
जवाब देंहटाएंदेखती हूँ तुम्हें
जवाब देंहटाएंचाँद की काया पर,
हर रोज़ जब भी चाहा कि देखूं तुम्हें
पाया है तुम्हें
चाँद के सीने पर!..
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बहुत खूबसूरत रचना!
सुंदर भाव....
जवाब देंहटाएंकोमल मन की सुंदर भावाभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर,
जवाब देंहटाएंआभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
BAHUT HI KHUBSURAT, LAJWAB KAVITA. BAHUT SE BHAV SAMETE HUYE HAI YE KAVITA. . . .
जवाब देंहटाएंJAI HIND JAI BHARAT
तुम मेरे हो, और मेरे ईश भी,
जवाब देंहटाएंतुम मेरे हो, और मेरे मीत भी!
तुम्हारी छवि में मैंने खुदा को है पाया,
तुम्हारी छवि में मैंने खुद को है पाया!
-मेरे होना ,मेरे ईश होना ,प्रिय की छवि में खुदा को पाना फिर उसमें खुद की तलाश करना ।प्रेम का यही स्वरूप शाश्वत है । उसे दायरे में बांधकर हम खुद सीमित होने को अभिशप्त हैं । चाँद से रौशनी उधार माँगकर उकेरा रूप्मिलने का आभास देता है ।पूरी कविता में एक अव्यक्त अपनापन समाया हुआ है ।