सोमवार, 20 जून 2011

254. मेरे मीत

मेरे मीत

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देखती हूँ तुम्हें
चाँद की काया पर
हर रोज़ जब भी चाहा कि देखूँ तुम्हें
पाया है तुम्हें
चाँद के सीने पर। 

तुम मेरे हो और मेरे ईश भी
तुम मेरे हो और मेरे मीत भी
तुम्हारी छवि में मैंने खुदा को है पाया
तुम्हारी छवि में मैंने खुद को है पाया। 

कभी चाँद के दामन से
कुछ रौशनी उधार माँग लाई थी
और उससे तुम्हारी तस्वीर
उकेर दी थी चाँद पर
जब जी चाहता है मिलूँ तुमसे
देखती हूँ तुम्हें चाँद की काया पर। 

- जेन्नी शबनम (8 फ़रवरी, 2009)
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7 टिप्‍पणियां:

  1. देखती हूँ तुम्हें
    चाँद की काया पर,
    हर रोज़ जब भी चाहा कि देखूं तुम्हें
    पाया है तुम्हें
    चाँद के सीने पर!..
    --
    बहुत खूबसूरत रचना!

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  2. कोमल मन की सुंदर भावाभिव्यक्ति!

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  3. BAHUT HI KHUBSURAT, LAJWAB KAVITA. BAHUT SE BHAV SAMETE HUYE HAI YE KAVITA. . . .
    JAI HIND JAI BHARAT

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  4. तुम मेरे हो, और मेरे ईश भी,
    तुम मेरे हो, और मेरे मीत भी!
    तुम्हारी छवि में मैंने खुदा को है पाया,
    तुम्हारी छवि में मैंने खुद को है पाया!
    -मेरे होना ,मेरे ईश होना ,प्रिय की छवि में खुदा को पाना फिर उसमें खुद की तलाश करना ।प्रेम का यही स्वरूप शाश्वत है । उसे दायरे में बांधकर हम खुद सीमित होने को अभिशप्त हैं । चाँद से रौशनी उधार माँगकर उकेरा रूप्मिलने का आभास देता है ।पूरी कविता में एक अव्यक्त अपनापन समाया हुआ है ।

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