मंगलवार, 13 सितंबर 2011

283. अभिवादन की औपचारिकता

अभिवादन की औपचारिकता

***

अभिवादन में पूछते हैं आप
कैसी हो? क्या हाल है? सब ठीक है ?
करती हूँ मैं अविलम्ब 
निःसंवेदित, रटा-रटाया, उल्लासित अभिनन्दन 
अच्छी हूँ! सब कुशल मंगल है! आप कैसे हैं?

क्या सचमुच कोई जानने को उत्सुक है, किसी का हाल?
क्या सचमुच हम बता सकते 
किसी को अपना हाल?
ये प्रचलित औपचारिकता के शब्द हैं 
नहीं चाहता सुनना, कोई किसी का हाल
फिर भी पूछ्तें हैं, मैं भी पूछती हूँ 
मन में समझते हुए दूसरे का हाल। 

क्या सुनना चाहेंगे मेरा हाल
क्या दूसरों की पीड़ा जानना चाहेंगे
क्या सुन सकेंगे मेरा सच?
मेरा कुण्ठित अतीत और व्याकुल वर्तमान 
मेरा सम्पूर्ण हाल, जो शायद आपका भी हो थोड़ा सच। 

मैं तो जुटा न पाई हूँ, आप भी कहाँ कर पाए हैं 
अनौपचारिक बनकर सच बताने की हिम्मत
आज बता ही देती हूँ अपनी सारी सच्चाई 
कर ही देती हूँ हमारे बीच की औपचारिकता का अन्त। 

बताऊँ कैसे मेरा वह दर्द, वह अवसाद, वह दंश 
जो पल-पल मेरे मन को खण्डित करता है
बताऊँ कैसे मेरा वह सच 
जो मेरे अन्तर्मन की जागीर है 
मन के तहख़ाने में दफ़्न है
जानती हूँ, मेरा सच सुनकर आप रूखी हँसी हँस देंगे 
हमारे बीच के रहस्यमय आवरण हट जाएँगे
आप भूले से भी हाल पूछेंगे 
अच्छा ही होगा अब आप कभी 
मुझसे औपचारिकता नहीं निभाएँगे। 

कैसे बताऊँ कि मेरे मन में कितनी टीस है 
शरीर में कितनी पीर है
उम्र और वक़्त का हर एक ज़ख़्म, मुझसे मुझको छीनता है
अपनों की ख़्वाहिशों को पालने में 
ख़ुद को हर पल कितना मारना होता है
एक विफलता सम्बन्धों की 
एक लाचारगी जीने की, मन कितना तड़पता है। 

कैसे बताऊँ, तमाम कोशिशों के बावजूद 
समाज की कसौटी पर खरी नहीं उतरी हूँ
घर के बिखराव को बचाने में 
क्षण-क्षण कितना ढहती, बिखरती हूँ
वक़्त की कमी या फ़ुर्सत की कमी 
एक बहाना-सा बनाकर सबसे छिपती हूँ
त्रासदी-सा जीवन-सफ़र मेरा 
पर घर का सम्मान, सदा उल्लासित दिखती हूँ। 

कैसे बताऊँ, क्यों सम्बन्धों की भीड़ में 
एक अपना तलाशती हूँ
क्यों दुनिया की रंगीनियों में खोकर भी रंगहीन हूँ
क्यों छप्पन व्यंजनो के सामार्थ्य के बाद भी 
भूखी-प्यासी हूँ
क्यों जीवन से पलायान को सदैव तत्पर रहती हूँ।  

नहीं! नहीं! नहीं बता पाऊँगी सम्पूर्ण सत्य 
मंज़ूर है मुखौटा ओढ़ना
हमारी रीति-संस्कृति ने सिखाया है 
कटु सत्य नहीं बोलना
हमारी तहज़ीब है 
आँसुओं को छुपाकर दूसरों के सामने मुस्कुराना
यों भी सलीक़ा अच्छा नहीं होता, अपना भेद खोलना। 

अभिवादन की औपचारिकता है, किसी का हाल पूछना
जज़्बात की बात नहीं, महज़ चलन है ये पूछना
जान-पहचान की चिर-स्थायी है ये परम्परा 
औपचारिकता ही सही, बस यों ही हाल पूछते रहना। 

- जेन्नी शबनम (मई, 2009)
____________________

16 टिप्‍पणियां:

  1. kathor saty liye huyee ek rachna...bebaak bhaav samete huye ek kavitaa..aur bahut saara dard ka ubaal...


    Apne blog par fir se sajag hone ke prayaas me hoon:
    http://teri-galatfahmi.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  2. नहीं-नहीं, नहीं बता पाऊँगी सम्पूर्ण सत्य, मंज़ूर है मुखौटा ओढ़ना !
    हमारी रीति-संस्कृति ने सिखाया है... कटु सत्य नहीं बोलना !
    हमारी तहज़ीब है, आँसुओं को छुपा दूसरों के सामने मुस्कुराना !
    सलीका यूँ भी अच्छा होता नहीं, यूँ अपना भेद खोलना !

    अभिभूत हूँ आपकी अति भावपूर्ण हृदय से निकली अनुपम अभिव्यक्ति पढकर.बहुत कुछ कह दिया है आपने अपनी इस शानदार प्रस्तुति में .आपकी सुन्दर प्रस्तुति को मेरा सादर नमन.

    मेरे ब्लॉग पर आपने आकर सुन्दर टिपण्णी से अनुग्रहित किया है मुझे.

    एक बार फिर से आईये,आपका इंतजार है.

    जवाब देंहटाएं
  3. सच्झ्में कोई भी हाल चाल नहीं जानना चाहता ..केवल अभिवादनकी औपचारिकता पूरी करने के लिए ऐसा किया जाता है..और चलो मान भी लिया कोई एक सच्ची हाल जानना भी चाहे तो............
    नहीं-नहीं, नहीं बता पाऊँगी सम्पूर्ण सत्य, मंज़ूर है मुखौटा ओढ़ना !
    हमारी रीति-संस्कृति ने सिखाया है... कटु सत्य नहीं बोलना !
    बहुत ही सुन्दर रचना.......आपको बधाई .

    जवाब देंहटाएं
  4. कैसे बताऊँ कि तमाम कोशिशों के बावज़ूद, समाज की कसौटी पर, मैं खरी नहीं उतरी हूँ !
    घर के बिखराव को बचाने में, क्षण क्षण कितना मैं ढहती बिखरती हूँ !
    वक़्त की कमी या फ़ुर्सत की कमी, एक बहाना सा बना, सब से मैं छिपती हूँ !
    त्रासदी सा जीवन-सफ़र मेरा, पर घर का सम्मान... सदा उल्लासित दिखती हूँ !
    bahut khoob Jenny jI,kya sunder abhivyakti hai...badhai

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुन्दर लिखा है आपने!
    शानदार उम्दा रचना.

    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईयेगा, आपका स्वागत है.

    जवाब देंहटाएं
  6. क्या सचमुच, कोई जानने को उत्सुक है, किसी का हाल?....
    फिर सच या झूठ कुछ भी कहें - क्या फर्क पड़ता है

    जवाब देंहटाएं
  7. शबनम जी , बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है , संभवतः हर पाठक को अपने ही दिल की बात लगेगी। न तो किसी को हर पीड़ा बयान की जा सकती है , न ही समझने वाला सही सन्दर्भों में उसे कभी समझ सकेगा। शायद इसीलिए बहुत कुछ अनकहा रह जाता है और रिश्ते औपचारिक।

    जवाब देंहटाएं
  8. आपकी यह कविता सुनामी की तरह आती है , सब कुछ बिखेरती भूकम्प और जल प्लावन सब एक साथ ।कविता लम्बी ज़रूर है , पर लगता है आपने पहला शब्द लिखा और बिना साँस लिये जैसे आखिरी शब्द तक लगातार लिखती चली गई हैं , वह सच जो हमारे अन्तर्मन में मौजूद है । हरवाक्य में , हर चिन्तन में गज़ब की त्वरा है जेन्नी शबनम जी । और ये पंक्तियाँ तो बेहद मार्मिक हैं, मन को भीतर तक खुरच देने वाली- ''कैसे बताऊँ कि, मेरे मन में कितनी टीस है, शारीर में कितनी पीर है !
    उम्र और वक़्त का एक एक ज़ख्म, मुझसे मुझको छीनता है !
    अपनों की ख़्वाहिश को पालने में, ख़ुद को पल पल कितना मारना होता है !
    एक विफलता संबंधों की, एक लाचारगी जीने की, मन कितना तड़पता है !''

    जवाब देंहटाएं
  9. डॉ जेन्नी शबनम जी !मेरी तेरी ,हम सबकी नियति है यही .जीवन चलने का नाम ,और इसी चलने का नाम गाडी .अलबत्ता कई लोग जब हाल चाल पूछ्तें हैं तब लगता है ज़रूरी था इसका यूं मरे हुए मिलना ,निस्तेज ,निस्स्पंदन .न मिलता तो क्या हर्ज़ था .
    बुधवार, १४ सितम्बर २०११
    काम शिखर "इव" का रहस्य के आवरण से आया बाहर .

    जवाब देंहटाएं
  10. वाकई औपचारिकता सी ही है, हाल-चाल पूछते रहना.

    जवाब देंहटाएं
  11. कैसे बताऊँ कि क्यों संबंधों की भीड़ में, मैं एक अपना तलाशती हूँ?
    क्यों दुनिया की रंगीनियों में खोकर भी, मैं रंगहीन हूँ?

    .....एक कटु सत्य की बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...

    जवाब देंहटाएं
  12. कविता पढ़ कर आनंद आ गया!

    जवाब देंहटाएं
  13. औपचारिकता की जबरदस्त धज्जियां उड़ांई हैं आपने...पूरा पढ़ने पर ही रुक पाया....

    जवाब देंहटाएं