चक्रव्यूह
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कैसे-कैसे इस्तेमाल की जाती हूँ
अनजाने ही, चक्रव्यूह में घुस जाती हूँ
जानती हूँ, मैं अभिमन्यु नहीं
जिसने चक्रव्यूह भेदना गर्भ में सीखा
मैं स्त्री हूँ, जो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से
हर बार चक्रव्यूह में समाकर
एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा!
- जेन्नी शबनम (1. 11. 2011)
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कैसे-कैसे इस्तेमाल की जाती हूँ
अनजाने ही, चक्रव्यूह में घुस जाती हूँ
जानती हूँ, मैं अभिमन्यु नहीं
जिसने चक्रव्यूह भेदना गर्भ में सीखा
मैं स्त्री हूँ, जो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से
हर बार चक्रव्यूह में समाकर
एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा!
- जेन्नी शबनम (1. 11. 2011)
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मैं स्त्री हूँ
जवाब देंहटाएंजो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख़ के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से.....
सुन्दर शब्द रचना
जेन्नी जी, आप बहुत सुन्दर और भावपूर्ण
जवाब देंहटाएंलिखतीं हैं.हिम्मत,सहनशक्ति और समझदारी
से स्त्री चक्रव्यूह से बाहर आने की क्षमता भी
रखती है.
सुन्दर अनुपम प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार.
wah kya baat hai....
जवाब देंहटाएंखूबसूरत बेहतरीन पंक्तियाँ बधाई
जवाब देंहटाएंहर बार चक्रव्यूह में समा कर
जवाब देंहटाएंएक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा I
कितना सच कह गई हैं... आप स्त्रियों की त्रासदी को...
सुन्दर भावाभिवय्क्ति.....
जवाब देंहटाएंहर बार चक्रव्यूह में समा कर
जवाब देंहटाएंएक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा ... aur diggajon ke haathon berahmi se maari jati hun
वाह …………क्या बात कही है ।
जवाब देंहटाएंistriyon ki samajik dasha ka gyan karati rachna.....
जवाब देंहटाएंab jamana aa gaya hai jab ye chakrvayuh bhedne ki jarurat hai...
jai hind jai bharat
मैं स्त्री हूँ
जवाब देंहटाएंजो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख़ के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से...
मन को आंदोलित करती यह रचना बहुत सी अनकही बातों को सोचने के लिए वाध्य कर देती है । आपके पोस्ट पर आना बहुत ही अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।
बहुत खूबसूरत रचना दोस्त जी |
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना दोस्त जी |
जवाब देंहटाएंमैं स्त्री हूँ
जवाब देंहटाएंजो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख़ के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से....
लाज़वाब पंक्तियाँ...कटु यथार्थ का बहुत भावपूर्ण चित्रण..लेकिन अब वह चक्रव्यूह से निकलना सीख रही है और वह दिन दूर नहीं जब वह चक्रव्यूह को भेद पायेगी...
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंदेवोत्थान पर्व की शुभकामनाएँ!
जो छली जाती है
जवाब देंहटाएंकभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख़ के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से I no words to say.
कटु यथार्थ का सफल चित्रण!
जवाब देंहटाएंस्त्री....यही नियति है...भावनाओं के जाल में फंस कर ....छले जाना
जवाब देंहटाएंआपकी 'चक्रव्यूह' कविता में स्त्री-जीवन की सम्पूर्ण व्याख्या समाहित है। विवश कर देने वाले जो कारक आपने गिनवाए हैं, सारे एकदम यथार्थ हैं।छले जाने का यह दंश हृदयविदारह है, शाश्वत है। ये पंक्तियाँ तो बेजोड़ हैं-
जवाब देंहटाएंमैं स्त्री हूँ
जो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख़ के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से I
हर बार चक्रव्यूह में समा कर
एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा I
अर्थपूर्ण लेखन ... भावुक होती अहिं स्त्रियाँ और इसी बात का सब फायदा उठाना चाहते हैं ...
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