शनिवार, 5 नवंबर 2011

297. चक्रव्यूह (पुस्तक - 74)

चक्रव्यूह

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कैसे-कैसे इस्तेमाल की जाती हूँ
अनजाने ही, चक्रव्यूह में घुस जाती हूँ
जानती हूँ, मैं अभिमन्यु नहीं
जिसने चक्रव्यूह भेदना गर्भ में सीखा
मैं स्त्री हूँ, जो छली जाती है
कभी भावना से
कभी संबंधों के हथियार से
कभी सुख के प्रलोभन से
कभी ख़ुद के बंधन से
हर बार चक्रव्यूह में समाकर
एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा!

- जेन्नी शबनम (1. 11. 2011)
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20 टिप्‍पणियां:

  1. मैं स्त्री हूँ
    जो छली जाती है
    कभी भावना से
    कभी संबंधों के हथियार से
    कभी सुख़ के प्रलोभन से
    कभी ख़ुद के बंधन से.....
    सुन्दर शब्द रचना

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  2. जेन्नी जी, आप बहुत सुन्दर और भावपूर्ण
    लिखतीं हैं.हिम्मत,सहनशक्ति और समझदारी
    से स्त्री चक्रव्यूह से बाहर आने की क्षमता भी
    रखती है.

    सुन्दर अनुपम प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार.

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  3. खूबसूरत बेहतरीन पंक्तियाँ बधाई

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  4. हर बार चक्रव्यूह में समा कर
    एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
    जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा I

    कितना सच कह गई हैं... आप स्त्रियों की त्रासदी को...

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  5. सुन्दर भावाभिवय्क्ति.....

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  6. हर बार चक्रव्यूह में समा कर
    एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
    जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा ... aur diggajon ke haathon berahmi se maari jati hun

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  7. वाह …………क्या बात कही है ।

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  8. istriyon ki samajik dasha ka gyan karati rachna.....

    ab jamana aa gaya hai jab ye chakrvayuh bhedne ki jarurat hai...
    jai hind jai bharat

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  9. मैं स्त्री हूँ
    जो छली जाती है
    कभी भावना से
    कभी संबंधों के हथियार से
    कभी सुख़ के प्रलोभन से
    कभी ख़ुद के बंधन से...

    मन को आंदोलित करती यह रचना बहुत सी अनकही बातों को सोचने के लिए वाध्य कर देती है । आपके पोस्ट पर आना बहुत ही अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

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  10. बहुत खूबसूरत रचना दोस्त जी |

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  11. बहुत खूबसूरत रचना दोस्त जी |

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  12. मैं स्त्री हूँ
    जो छली जाती है
    कभी भावना से
    कभी संबंधों के हथियार से
    कभी सुख़ के प्रलोभन से
    कभी ख़ुद के बंधन से....

    लाज़वाब पंक्तियाँ...कटु यथार्थ का बहुत भावपूर्ण चित्रण..लेकिन अब वह चक्रव्यूह से निकलना सीख रही है और वह दिन दूर नहीं जब वह चक्रव्यूह को भेद पायेगी...

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  13. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    देवोत्थान पर्व की शुभकामनाएँ!

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  14. जो छली जाती है
    कभी भावना से
    कभी संबंधों के हथियार से
    कभी सुख़ के प्रलोभन से
    कभी ख़ुद के बंधन से I no words to say.

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  15. स्त्री....यही नियति है...भावनाओं के जाल में फंस कर ....छले जाना

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  16. आपकी 'चक्रव्यूह' कविता में स्त्री-जीवन की सम्पूर्ण व्याख्या समाहित है। विवश कर देने वाले जो कारक आपने गिनवाए हैं, सारे एकदम यथार्थ हैं।छले जाने का यह दंश हृदयविदारह है, शाश्वत है। ये पंक्तियाँ तो बेजोड़ हैं-
    मैं स्त्री हूँ
    जो छली जाती है
    कभी भावना से
    कभी संबंधों के हथियार से
    कभी सुख़ के प्रलोभन से
    कभी ख़ुद के बंधन से I
    हर बार चक्रव्यूह में समा कर
    एक नयी अभिमन्यु बन जाती हूँ
    जिसने चक्रव्यूह से निकलना नहीं सीखा I

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  17. अर्थपूर्ण लेखन ... भावुक होती अहिं स्त्रियाँ और इसी बात का सब फायदा उठाना चाहते हैं ...

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