मंगलवार, 13 सितंबर 2011

283. अभिवादन की औपचारिकता

अभिवादन की औपचारिकता

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अभिवादन में पूछते हैं आप
कैसी हो? क्या हाल है? सब ठीक है ?
करती हूँ मैं अविलम्ब 
निःसंवेदित, रटा-रटाया, उल्लासित अभिनन्दन 
अच्छी हूँ! सब कुशल मंगल है! आप कैसे हैं?

क्या सचमुच कोई जानने को उत्सुक है, किसी का हाल?
क्या सचमुच हम बता सकते 
किसी को अपना हाल?
ये प्रचलित औपचारिकता के शब्द हैं 
नहीं चाहता सुनना, कोई किसी का हाल
फिर भी पूछ्तें हैं, मैं भी पूछती हूँ 
मन में समझते हुए दूसरे का हाल। 

क्या सुनना चाहेंगे मेरा हाल
क्या दूसरों की पीड़ा जानना चाहेंगे
क्या सुन सकेंगे मेरा सच?
मेरा कुण्ठित अतीत और व्याकुल वर्तमान 
मेरा सम्पूर्ण हाल, जो शायद आपका भी हो थोड़ा सच। 

मैं तो जुटा न पाई हूँ, आप भी कहाँ कर पाए हैं 
अनौपचारिक बनकर सच बताने की हिम्मत
आज बता ही देती हूँ अपनी सारी सच्चाई 
कर ही देती हूँ हमारे बीच की औपचारिकता का अन्त। 

बताऊँ कैसे मेरा वह दर्द, वह अवसाद, वह दंश 
जो पल-पल मेरे मन को खण्डित करता है
बताऊँ कैसे मेरा वह सच 
जो मेरे अन्तर्मन की जागीर है 
मन के तहख़ाने में दफ़्न है
जानती हूँ, मेरा सच सुनकर आप रूखी हँसी हँस देंगे 
हमारे बीच के रहस्यमय आवरण हट जाएँगे
आप भूले से भी हाल पूछेंगे 
अच्छा ही होगा अब आप कभी 
मुझसे औपचारिकता नहीं निभाएँगे। 

कैसे बताऊँ कि मेरे मन में कितनी टीस है 
शरीर में कितनी पीर है
उम्र और वक़्त का हर एक ज़ख़्म, मुझसे मुझको छीनता है
अपनों की ख़्वाहिशों को पालने में 
ख़ुद को हर पल कितना मारना होता है
एक विफलता सम्बन्धों की 
एक लाचारगी जीने की, मन कितना तड़पता है। 

कैसे बताऊँ, तमाम कोशिशों के बावजूद 
समाज की कसौटी पर खरी नहीं उतरी हूँ
घर के बिखराव को बचाने में 
क्षण-क्षण कितना ढहती, बिखरती हूँ
वक़्त की कमी या फ़ुर्सत की कमी 
एक बहाना-सा बनाकर सबसे छिपती हूँ
त्रासदी-सा जीवन-सफ़र मेरा 
पर घर का सम्मान, सदा उल्लासित दिखती हूँ। 

कैसे बताऊँ, क्यों सम्बन्धों की भीड़ में 
एक अपना तलाशती हूँ
क्यों दुनिया की रंगीनियों में खोकर भी रंगहीन हूँ
क्यों छप्पन व्यंजनो के सामार्थ्य के बाद भी 
भूखी-प्यासी हूँ
क्यों जीवन से पलायान को सदैव तत्पर रहती हूँ।  

नहीं! नहीं! नहीं बता पाऊँगी सम्पूर्ण सत्य 
मंज़ूर है मुखौटा ओढ़ना
हमारी रीति-संस्कृति ने सिखाया है 
कटु सत्य नहीं बोलना
हमारी तहज़ीब है 
आँसुओं को छुपाकर दूसरों के सामने मुस्कुराना
यों भी सलीक़ा अच्छा नहीं होता, अपना भेद खोलना। 

अभिवादन की औपचारिकता है, किसी का हाल पूछना
जज़्बात की बात नहीं, महज़ चलन है ये पूछना
जान-पहचान की चिर-स्थायी है ये परम्परा 
औपचारिकता ही सही, बस यों ही हाल पूछते रहना। 

- जेन्नी शबनम (मई, 2009)
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