बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

320. अब और कितना (क्षणिका)

अब और कितना

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कैलेंडर में हर गुज़रे दिन को
लाल स्याही से काटकर बीतने का निशान लगाती हूँ
साल-दर-साल अनवरत
कोई अंतिम दिन नहीं आता जो ठहरता हो
न कोई ऐसी तारीख़ आती है 
जिसके गुज़रने का अफ़सोस न हो
प्रतीक्षा की मियाद मानो निर्धारित हो
आह! अब और कितना?
किसी तरह हो, बस अंत हो। 

- जेन्नी शबनम (8. 2. 2012)
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12 टिप्‍पणियां:

  1. एक समय ऐसा भी आएगा जब हम सबकी सांसे हमेशा के लिए रुक जाएगी पर वक्त वहां भी नहीं ठहरेगा ! हमें छोड़ कर आगे बढ़ जायेगा !
    सुन्दर प्रस्तुति !
    आभार !

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  2. जब तक हम ढूंढते हैं , अंत नहीं आता - जब निस्तैल आँखें होती हैं तो सब कुछ ठहर ही जाता है

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  3. अरे नहीं...........

    जीवन भी चले..लेखनी भी सरपट दौड़े...


    शुभकामनाएँ.

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  4. आह्ह्
    अब और कितना...
    किसी तरह हो
    बस अंत हो !

    आदि का अंत तो होगा ही ....
    सुंदर गहन भाव ...
    मर्म को छूते हुए से ...

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  5. बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  6. कोई अंतिम दिन नहीं आता
    जो मेरे लिए ठहरता हो
    न कोई ऐसी तारीख़ आती
    जिसके गुजरने का अफ़सोस न हो,
    प्रतीक्षा की मियाद
    मानो निर्धारित हो


    और उस निर्धारित का आधार ही पकड़ में नहीं आता....

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  7. प्रतीक्षा सदा ही अखरती है फिर भले ही वो किसी भी चीज़ की हो....गहरी भावपूर्ण रचना

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  8. शबनम जी, मुझे अपने लोगों से आत्मीयता की सुरभि मिलती है । आपकी प्रस्तुत कविता के संबंध में यही कहना चाहूंगा कि - मन तो एक ही होता है , दस बीस तो नही । आपकी कविता मन के संबेदनशील तारों को झंकृत कर गई । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद । .

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  9. साल दर साल अनवरत,
    कोई अंतिम दिन नहीं आता
    जो मेरे लिए ठहरता हो
    न कोई ऐसी तारीख़ आती
    जिसके गुजरने का अफ़सोस न हो,
    प्रतीक्षा की मियाद
    मानो निर्धारित हो -सचमुच जीवन में ऐसा कुछ होता ही नहीं जो ठहर जाए और ऐसे पल बहुत होते हैं जो हमारे हाथ से फिसल ही जाते हैं , पारे की तरह । बहुत सार्थक बात कही है।

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  10. आपकी रचना बहुत अच्छी लगी,जिंदगी इसी तरह चलती रहती है,अंत सिर्फ मौत है

    MY NEW POST...मेरे छोटे से आँगन में...

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