भूमिका
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नेपथ्य से आई धीमी पुकार
जाने किसने पुकारा मेरा नाम
मंच पर घिरी हूँ, उन सभी के बीच
जो मुझसे सम्बद्ध हैं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
अपने में तल्लीन, मैं अपनी भूमिका निभा रही हूँ
कण्ठस्थ संवाद दुहरा रही हूँ।
फिर ये कैसा व्यवधान?
किसकी है ये पुकार?
कोई नहीं दिखता
नेपथ्य में अँधियारा, थोड़ी दूरी पर थोड़ा उजाला
घुटनों में मुँह छुपाए कोई छाया
स्वयं को बिसराकर, अज्ञात पथ पर चलकर
मंच तक पहुँची थी मैं
उसे छोड़ आई थी, कब का भूल आई थी।
कितनी पीड़ा थी
अपने अस्तित्व को खोने की व्यथा थी
बार-बार मुझे पुकारती थी
दर्शकों के शोर में उसकी पुकार दब जाती थी।
मंच की जगमगाहट में उसका अन्धेरा और गहराता था
पर वह हारी नहीं
सालों-साल अनवरत पुकारती रही
कभी तो मैं सुन लूँगी, वापास आ जाऊँगी।
कुछ भी विस्मृत नहीं, हर क्षण स्मरण था मुझे
उसके लिए कोई मंच नहीं
न उसके लिए कोई संवाद
न दर्शक बन जाने की पात्रता
ठहर जाना ही एकमात्र आदेश।
उसकी विवशता थी और जाना पड़ा था दूर
अपने लिए पथ ढूँढना पड़ा था मुझे
मेरे लिए भी अकथ्य आदेश
मंच पर ही जीवन शेष
मेरे बिना अपूर्ण मंच, ले आई उसे भी संग।
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए।
- जेन्नी शबनम (21.2.2012)
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भूमिका निबाहते निबाहते स्वयं में दो पात्रों का उतर आना .... बहुत गहन भाव लिए अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंअपने लिए पथ ढूँढना पड़ा था मुझे,
जवाब देंहटाएंमेरे लिए भी अकथ्य आदेश
मंच पर ही जीवन शेष
मेरे बिना अपूर्ण मंच
ले आयी उसे भी संग
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता
एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए !
Wah!
सुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंएक तन में जीता
जवाब देंहटाएंएक मन में बसता,अच्छी पंक्तियाँ
मन के भावों की भूमिका दर्शाती सुंदर रचना,...
सात अरब की भीड़ में, अंतर-मन अकुलाय ।
जवाब देंहटाएंतनकर तन्मय तन तपत, त्याग तमन्ना जाय ।।
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in/
सुंदर छायावाद ,अद्वितीय जीवन दर्शन,वाह!!!!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंयह पुकार उसकी या मेरी सोच की कि कोई पुकारे और निरंतरता उधर की ... पुकार आती रहेगी
जवाब देंहटाएंवाह!!!!
जवाब देंहटाएंअदभुद अभिव्यक्ति...
बहुत खूब.
कई बार इंसान तालियों की चकाचोंध में में अपने अस्तित्व को ... अपने सच्चे एहसास को खो देता है ओर दोहरी जिंदगी में जीता रहता है ...
जवाब देंहटाएंमन के द्वन्द को शब्दों में सफलता से उतारा है ...
कल 24/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
शुक्रवार के मंच पर, तव प्रस्तुति उत्कृष्ट ।
जवाब देंहटाएंसादर आमंत्रित करूँ, तनिक डालिए दृष्ट ।।
charchamanch.blogspot.com
भावों से नाजुक शब्द......बेजोड़ भावाभियक्ति.
जवाब देंहटाएंअब दो पात्र मुझमें बस गए
जवाब देंहटाएंएक तन में जीता
एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए !
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
अब दो पात्र मुझमें बस गए
जवाब देंहटाएंएक तन में जीता
एक मन में बसता...यही त्रासदी है.
bahut sunder rachna ...
जवाब देंहटाएंमेरे बिना अपूर्ण मंच
जवाब देंहटाएंले आयी उसे भी संग
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता
एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए !
बहुत सुंदर भाव संयोजन के साथ गहन भवाअभिव्यक्ति। शुभकामनायें।
दो पात्रो का जीवन जीना आसान नही होता ………सुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंbahut sunder likhi hain......
जवाब देंहटाएंकल शनिवार , 25/02/2012 को आपकी पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
bahut sundar shabd sanyojan..
जवाब देंहटाएंवाह||
जवाब देंहटाएंबेहद खुबसुरत अभिव्यक्ती....
सुंदर रचना...
पात्रों में बँटा अस्तित्व. बहुत गूढ़ भावाभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंbahut sundar....
जवाब देंहटाएंmahilao ka jeevan aisa hi hota hain,
apna astitv ko kho kar kuch aur hi
banana padta hain.
mere blog par bhi aaye.
जवाब देंहटाएंhttp://sheetalslittleworld.blogspot.com
http://kisseaurkahaniyonkiduniya.blogspot.com
और जाना पड़ा था दूर
जवाब देंहटाएंअपने लिए पथ ढूँढना पड़ा था मुझे,
मेरे लिए भी अकथ्य आदेश
मंच पर ही जीवन शेष
मेरे बिना अपूर्ण मंच
ले आयी उसे भी संग
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता
एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए !
बहुत खूब .
बहुत,बेहतरीन अच्छी प्रस्तुति,सुंदर सटीक रचना के लिए बधाई,.....
जवाब देंहटाएंNEW POST...काव्यांजलि...आज के नेता...
NEW POST...फुहार...हुस्न की बात...
हम सभी ज़िन्दगी जीते हुए , कई व्यक्तित्वों में बंटे हैं ...एक किरदार निभाते हुए, दूसरे को अनदेखा करना ही पड़ता है .....इस विडंबना के साथ ही जीना पड़ता ही ...
जवाब देंहटाएंजेन्नी शबनम जी ! आपकी हर कविता नई पृष्ठभूमि लिये होती है साथ ही अछूती संवेदना भी । भूमिका भी उसी तरह की कविता है अम अपना बहुत कुछ मंच के पीछे नेपथ्य में छोड़ आते हैं । उसके बिना लगता है प्राण तालु में आ लगे । आपने सूक्ष्मता से भावों को सूत्रबद्ध किया है । पूरी कविता बहुत अच्छी है । और ये पंक्तियाँ तो भुलाए न बनें-
जवाब देंहटाएंमेरे बिना अपूर्ण मंच
ले आयी उसे भी संग
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता
एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए !
गहरी अभिव्यक्ति..वाह!!
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