सात पल
मुट्ठी में वर्षों से बंद
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वक़्त का हर एक लम्हा
कब गिर पड़ा
कुछ पता न चला
महज़ सात पल रह गए
क्योंकि उन पलों को
मैं हथेली की जीवन रेखा में
नाखून से कुरेद-कुरेदकर
ठूँस दी थी
ताकि
कोई भी बवंडर इसे छीन न सके,
उन सात पलों में
पहला पल
जब मैंने ज़िन्दगी को देखा
दूसरा
जब ज़िन्दगी ने मुझे अपनाया
तीसरा
जब ज़िन्दगी ने दूर चले जाने की ज़िद की
चौथा
जब ज़िन्दगी मेरे शहर से बिना मिले लौट गई
पाँचवा
जब ज़िन्दगी के शहर से मुझे लौटना पड़ा
छठा
जब ज़िन्दगी से वो सारे समझौते किए जो मुझे मंज़ूर न थे
सातवाँ
जब ज़िन्दगी को अलविदा कह दिया,
अब कोई आठवाँ पल नहीं आएगा
न रुकेगा मेरी लकीरों में
न टिक पाएगा मेरी हथेली में
क्योंकि मैं मुट्ठी बंद करना छोड़ दी हूँ।
- जेन्नी शबनम (21. 7. 2012)
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