रविवार, 3 मार्च 2013

387. ज़िन्दगी स्वाहा (क्षणिका)

ज़िन्दगी स्वाहा

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कब तक आख़िर मेढ़क बन कर रहें
आओ संग-संग,एक बड़ी छलाँग लगा ही लें 
पार कर गए तो मंज़िल 
गिर पड़े तो वही दुनिया, वही कुआँ, वही कुआँ के मेढ़क 
टर्र-टर्र करते एक दूसरे को ताकते, ज़िन्दगी स्वाहा। 

- जेन्नी शबनम (3. 3. 2013)
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