रविवार, 27 नवंबर 2016

532. मानव-नाग

मानव-नाग  
 
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सुनो! अगर सुन सको    
ओ मानव केंचुल में छुपे नाग!
   
डसने की आज़ादी मिल गई तुम्हें   
पर जीत ही जाओगे 
यह भ्रम क्यों? 
केंचुल की ओट में छुपकर   
नाग जाति का अपमान क्यों करते हो?  
नाग बेवजह नहीं डसता 
पर तुम?
  
धोखे से कब तक धोखा दोगे   
बिल से बाहर आकर पृथक होना होगा   
छोड़ना होगा केंचुल तुम्हें   
कौन नाग, कौन मानव   
किसका केंचुल, किसका तन   
बीन बजाता संसार सारा   
वक़्त के खेल में सब हारा। 
   
ओ मानव-नाग!
कब तक बच पाओगे?   
नियति से आख़िर हार जाओगे   
समय रहते मानव बन जाओ   
अन्यथा वह होगा, जो होता है 
ज़हरीले नाग का अन्त   
सदैव क्रूर होता है।

-जेन्नी शबनम (27.11.2016)
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4 टिप्‍पणियां:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-11-2016) के चर्चा मंच ""देश का कालाधन देश में" (चर्चा अंक-2541) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपने लिखा....
    मैंने पढ़ा....
    हम चाहते हैं इसे सभ ही पढ़ें....
    इस लिये आप की रचना दिनांक 29/11/2016 को पांच लिंकों का आनंद...
    पर लिंक की गयी है...
    आप भी इस प्रस्तुति में सादर आमंत्रित है।

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  3. "समय रहते
    मानव बन जाओ"

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  4. koi bhi jiv khatarnaak nahi hota jab tak ki usee koi khatra mehsus nahi hota. isi tarah naag bhi apni aatm raksha ke liye hi waar karte hai
    NEW YEAR WISHES 4 YOU

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