मंगलवार, 14 नवंबर 2017

562. फ़्लाइओवर

फ़्लाइओवर 

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एक उम्र नहीं, एक रिश्ता नहीं  
कई किस्तों में, कई हिस्सों में  
बीत जाता है जीवन  
किसी फ़्लाइओवर के नीचे  
प्लास्टिक के कनात के अन्दर  
एक सम्पूर्ण एहसास के साथ। 

गुलाब का गुच्छा, सस्ती किताब, सस्ते खिलौने  
जिन पर उनका हक़ होना था  
बेच रहे पेट की ख़ातिर
काग़ज़ और कपड़े के तिरंगे झण्डे   
आज बेचते, कल कूड़े से उठाते  
मस्तमौला, तरह-तरह के करतब दिखाते  
और भी जाने क्या-क्या है  
जीवन गुज़ारने का उनका ज़रीया। 
 
आज यहाँ, कल वहाँ  
पूरी गृहस्थी चलती है  
इस यायावरी में फूल भी खिलते  
वृक्ष वृद्ध भी होते हैं  
जाने कैसे प्रेम पनपते हैं। 
 
वहीं खाना, वहीं थूकना  
बदबू से मतली नहीं  
ग़ज़ब के जीवट, गज़ब का ठहराव  
जो है, उतने में ख़ुश  
कोई सोग नहीं, कोई बैर नहीं  
जो जीवन उससे संतुष्ट  
और ज़्यादा की चाह नहीं 
आखिर क्यों?  
न अधिकार चाहिए, न सुधार चाहिए। 
  
बस यों ही  
पुश्त-दर-पुश्त  
खम्भे की ओट में  
कूड़े के ढेर के पास  
फ़्लाइओवर के नीचे  
देश का भविष्य तय करता है  
जीवन का सफ़र।  

-जेन्नी शबनम (14.11.2017)  
(बाल दिवस)
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