शनिवार, 31 मार्च 2018

570. कैक्टस (पुस्तक - 71)

कैक्टस  

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एक कैक्टस मुझमें भी पनप गया है  
जिसके काँटे चुभते हैं मुझको  
और लहू टपकता है  
चाहती हूँ, हँसू खिलखिलाऊँ  
बिन्दास उड़ती फिरूँ  
पर जब भी, उठती हूँ, चलती हूँ  
उड़ने की चेष्टा करती हूँ  
मेरे पाँव और मेरा मन  
लहूलुहान हो जाता है  
उस कैक्टस से  
जिसे मैंने नहीं उगाया  
बल्कि समाज ने मुझमें जबरन रोपा था  
जब मैं कोख में आई थी  
और मेरी जन्मदात्री  
अपने कैक्टस से लहूलुहान थी  
और उसकी जन्मदात्री अपने कैक्टस से।    
देखो! हम सब का लहू रिस रहा है  
अपने-अपने कैक्टस से।  

- जेन्नी शबनम (31. 3. 2018)  
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रविवार, 18 मार्च 2018

569. ज़िद्दी मन (क्षणिका)

ज़िद्दी मन  

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ज़िद्दी मन ज़िद करता है 
जो नहीं मिलता वही चाहता है  
तारों से भी दूर मंज़िल ढूँढता है  
यायावर-सा भटकता है  
ज़ीस्त में जंग ही जंग पर सुकून की बाट जोहता है  
ये मेरा ज़िद्दी मन अल्फ़ाज़ का बंदी मन  
ख़ामोशी ओढ़के जग को ख़ुदा हाफ़िज़ कहता है  
पर्वत-सी ज़िद ठाने, कतरा-कतरा ढहता है  
पल-पल मरता है, पर जीने की ज़िद करता है।  

- जेन्नी शबनम (18. 3. 2018)  
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गुरुवार, 8 मार्च 2018

568. पायदान (क्षणिका)

पायदान  

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सीढ़ी की पहली पायदान हूँ मैं  
जिसपर चढ़कर समय ने छलाँग मारी  
और चढ़ गया आसमान पर  
मैं ठिठककर तब से खड़ी  
काल-चक्र को बदलते देख रही हूँ,  
न जिरह न कोई बात कहना चाहती हूँ  
न हक़ की, न ईमान की, न तब की, न अब की।  
शायद यही प्रारब्ध है मेरा  
मैं, सीढ़ी की पहली पायदान।  

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2018)  
(महिला दिवस)
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