पानी और स्त्री
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बचपन में पढ़ा-
पानी होता है रंगहीन गंधहीन
जिसे जहाँ रखा उस साँचे में ढला
ख़ूब गर्म किया भाप बन उड़ गया
ख़ूब ठंडा किया बर्फ़ बन जम गया
पानी के साथ उगता है जीवन
पनपती हैं सभ्यताएँ
पानी गर हुआ लुप्त
संसार भी हो जाएगा विलुप्त।
फिर भी पानी के साथ होता है खिलवाड़
नहीं होता उसका सम्मान
नहीं करते उसका बचाव
न ही करते उसका संरक्षण
न ही करते उसका प्रबंधन
जबकि जानते हैं पानी नहीं तो दुनिया नहीं।
बचपन में जो था पढ़ा
अब जीवन ने है समझा
स्त्रियाँ पानी हैं
वक़्त ने जहाँ चाहा उस साँचे में ढाल दिया
कभी आरोपों से जम गई
तो व्याकुलता से लिपटकर भाप-सी पिघल गई
स्त्रियों ने किया सर्जन
नवजीवन का किया पोषण
फिर भी मानी गई सब पर बोझ
सभी चाहते नहीं मिले उसको कोख
पानी-सी न सुरक्षित की गई
पानी-सी न संरक्षित हुई
पानी बिन होता अकाल
स्त्री बिन मिट जाएगा संसार।
पानी-सी स्त्री है
स्त्री-सा पानी है
सीरत अलग मगर
स्त्री और पानी जीवन है।
- जेन्नी शबनम (8. 3. 2019)
(महिला दिवस)
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स्त्री विमर्श के लिए बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
iwillrocknow.com
लाज़वाब और सटीक अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंपानी-सी स्त्री है
जवाब देंहटाएंस्त्री-सा पानी है
सीरत अलग मगर
स्त्री और पानी जीवन है।
पानी और स्त्री का बड़ा ही सुंदर चित्रण ,बहुत खूब.... ,सादर नमस्कार