नहीं आता
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ग़ज़ल नहीं कहती
यूँ कि मुझे कहना नहीं आता
चाहती तो हूँ मगर
मन का भेद खोलना नहीं आता।
बसर तो करनी है पर
शहर की आबोहवा बेगानी लगती
रूकती हूँ समझती हूँ
पर दमभरकर रोना नहीं आता।
सफ़र में अब जो भी मिले
मुमकिन है मंज़िल मिले न मिले
परवाह नहीं पाँव छिल गए
दमभर भी हमें ठहरना नहीं आता।
मायूसी मन में पलती रही
अपनों से ज़ख़्म जब भी गहरे मिले
कोशिश की थी कि तन्हा चलूँ
पर अपने साथ जीना नहीं आता।
यादों के जंजाल में उलझके
बिसुराते रहे हम अपने आज को
हँस-हँसके ग़म को पीना होता
पर 'शब' को यूँ हँसना नहीं आता।
- जेन्नी शबनम (7. 6. 2019)
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ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 07/06/2019 की बुलेटिन, " क्यों है यह हाल मेरे (प्र)देश में - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-06-2019) को "धरती का पारा" (चर्चा अंक- 3361) (चर्चा अंक-3305) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खूबसूरत पंक्तियाँ
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