जीवन-युद्ध
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यादों के गलियारे से गुज़रते हुए
मुमकिन है यादों को धकेलते हुए
जीवन के पार तो आ गई
पर राहों में पड़ी छोटी-छोटी यादें
मायूसी-से मेरी राह तकती दिखीं
कि ज़रा थमकर याद कर लो उन लम्हों को
जो दोबारा नहीं आएँगे।
जब एक नन्ही बच्ची ने
पहली बार छोटी-छोटी रोटी बना
अपने पापा को खिलाई थी
उस बच्ची ने माँ को देखकर
झाड़ू की सींक पर पहली बार
ऊन से फंदा डालना सीखा था
उसने दादी से सीखा था
सिलबट्टे पर हल्दी पीसना और जाँता पर दाल दरना
भैया के साथ खेले बचपन के खेल थे-
डॉक्टर-डॉक्टर, लुका-छिपी
राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघन
लूडो, पिट्टो और बैडमिन्टन
उसने भैया से सीखा था साइकिल चलाना
भैया से कभी जो झगड़ लेती
फिर उसे ख़ूब मारती और भैया हँसकर मार खाता
रूठ जाती थी वह बच्ची अक्सर
उसके पापा बड़े प्यार से उसे गोद में बिठाकर मनाते
कैसे-कैसे प्यारे-प्यारे दिन थे, जीवन में जो गुज़रे।
जाने अतीत पीछा क्यों करता है
फिर से बच्ची बन पापा की गोद में बैठने का मन करता है
गाँव की पगडंडियों पर हवाई चप्पल पहन बेवजह भागना
बोरिंग की तेज़ धार पर हौज़ में कूदना
बाढ़ में सारा दिन पानी में घुसकर
पापा के साथ गाँव भर की ख़बर लेना
बीमार होने पर मिट्टी की पट्टी
मट्ठा, सूप और नीम्बू-पानी पीना
पथ्य में उबले आटे की रोटी और घिऊरा की तरकारी खाना
सुबह चार बजे से पापा की गोदी में बैठकर
दुनिया भर की जानकारी पाना।
माँ से सीखा घर चलाना
घर का बजट बनाना, कम पैसे में जीवन जीना
पापा के जाने के बाद माँ का कमज़ोर पड़ना
और धीरे-धीरे समाज से कटना
फिर आत्मविश्वास का थोड़ा जगना
दादी का सम्बल
और फिर हमारा जीवन-युद्ध में भिड़ना।
सारे लम्हे याद आते हैं
हर एक बात पर याद आते हैं
पर ठहरना नहीं चाहती वहाँ पर
जब भी रुकी हूँ, आँखें नम होती हैं
फिर तलाशती हूँ, कोई कोना अपना
जहाँ निर्बाध हँस सकूँ, रो सकूँ
पापा की यादों को जी सकूँ
किसी से कुछ कह सकूँ
थोड़ा-सा मन का कर सकूँ
थोड़ा-सा मन का कर सकूँ
ख़ुद के साथ थोड़ा रह सकूँ।
-जेन्नी शबनम (18.7.2019)
(पापा की 41वीं पुण्यतिथि पर)
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