इकिगाई
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ज़िन्दगी चल रही थी, जिधर राह मिली, मुड़ रही थी
कहाँ जाना है, क्या पाना है, कुछ भी करके बस जीना है
न कोई पड़ाव, न कोई मंज़िल
वक़्त के साथ मैं गुज़र रही थी।
ज़िन्दगी घिसट रही थी, यों कि मैं धकेल रही थी
पर जब-जब मन भारी हुआ, जब-जब रास्ता बोझिल लगा
अन्तर्मन में हूक उठी और पन्नों पर हर्फ़ पिरोती रही
जो किसी से न कहा, लिखती रही।
सदियों बाद जाने कैसे उसका एक पन्ना उड़ गया
जा पहुँचा वहाँ, जहाँ किसी ने उसे पढ़ा
उसने रोककर मुझे कहा-
अरे! यही तो तुम्हारी राह थी
जिस पर तुम छुप-छुपकर रुक रही थी
इसलिए तुम बढ़ी नहीं
जहाँ से शुरू की, वहीं पर तुम खड़ी रही
जाओ! बढ़ जाओ इस राह पर
पन्नों को बिखरा दो क़ायनात में
कोई झिझक न रखो अपनी बात में।
मैं हतप्रभ! अब तक क्यों न सोचा
मेरे लिए यही तो एक रास्ता था
जिस पर चलकर सुकून मिलना था
जीवन को संतुष्टि और सार्थकता का बोध होना था
पर अब समझ गई हूँ
पन्नो पर रची तहरीर, मेरा इकिगाई है।
[इकिगाई- जापानी अवधारणा: मक़सद/जीवन-उद्देश्य)
-जेन्नी शबनम (15.10.2020)
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंसार्थक और प्रभावशाली रचना।
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जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
18/10/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
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धन्यवाद
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी की धार में खुद को बहने दो, उसकी लहरों में उठते-गिरते रहने दो, यही ज़िन्दगी का आनन्द है।
जवाब देंहटाएंसशक्त सृजन ।
जवाब देंहटाएंजीवन को संतुष्टि और सार्थकता का बोध होना था ... उत्कृष्ट रचना
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