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मेरे अस्तित्व का प्रश्न है-
मैं पत्थर बन चुकी या पानी हूँ?
पत्थरों से घिरी, मैं जीवन भूल चुकी हूँ
शायद पत्थर बन चुकी हूँ
फिर हर पीड़ा
मुझे रुलाती क्यों है?
हर बार पत्थरों को धकेलकर
जिधर राह मिले, बह जाती हूँ
शायद पानी बन चुकी हूँ
फिर अपनी प्यास से तड़पती क्यों हूँ?
हर बार, बार-बार
पत्थर और पानी में बदलती मैं
नहीं जानती, मैं कौन हूँ।
-जेन्नी शबनम (12.12.2020)
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दोनों का सम्मिश्रण है जीवन। सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुदर
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 14 दिसंबर 2020 को 'जल का स्रोत अपार कहाँ है' (चर्चा अंक 3915) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सुंदर।
जवाब देंहटाएंउम्मदा रचना
जवाब देंहटाएंयक्ष प्रश्न । अति सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंवाह गज़ब !!
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार।
अच्छा प्रश्न छोड़ती कविता
जवाब देंहटाएंसमय के अनुसार ढलना ही जीवन की गति है| सुन्दर रचना|
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंजीवन ही पत्थर पानी सा, बाहर से कठोर भीतर से झर झर बहता हुआ
जवाब देंहटाएंपत्थर और पानी में बदलती मैं
जवाब देंहटाएंनहीं जानती, मैं कौन हूँ...ज़िंदगी की लहर का ज़िंदगी से प्रश्न।
बहुत सुंदर