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यही तो कमाल है
सात समंदर पार किया, साथ समय को मात दी
फिर भी कहते हो-
हम साथ चलते नहीं हैं।
हर स्वप्न को बड़े जतन से ज़मींदोज़ किया
टूटने की हद तक ख़ुद को लुटा दिया
फिर भी कहते हो-
हम साथ देते नहीं हैं।
अविश्वास की नदी अविरल बह रही है
दागते सवाल, मुझे झुलसा रहे हैं
मेरे अन्तस् का ज्वालामुखी अब धधक रहा है
फिर भी कहते हो-
हम जलते क्यों नहीं हैं।
हाँ! यह सत्य अब मान लिया
सारे उपक्रम धाराशायी हुए
धधकते सवालों की चिनगारी
कलेजे को राख बना चुकी है
साबुत मन तरह-तरह के सामंजस्य में उलझा
चिन्दी-चिन्दी बिखर चुका है।
बड़ी जुगत से चाँदनी वस्त्रों में लपेटकर
जिस्म के मांस की पोटली बनाई है
दागते सवालों से झुलसी पोटली
सफ़र में साथ है
ज़रा-सा थमो
जिस्म की यह पोटली
दिल की तरह खुलकर
अब बस बिखरने को है।
-जेन्नी शबनम (25.11.2020)
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