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यही तो कमाल है
सात समंदर पार किया, साथ समय को मात दी
फिर भी कहते हो-
हम साथ चलते नहीं हैं।
हर स्वप्न को बड़े जतन से ज़मींदोज़ किया
टूटने की हद तक ख़ुद को लुटा दिया
फिर भी कहते हो-
हम साथ देते नहीं हैं।
अविश्वास की नदी अविरल बह रही है
दागते सवाल, मुझे झुलसा रहे हैं
मेरे अन्तस् का ज्वालामुखी अब धधक रहा है
फिर भी कहते हो-
हम जलते क्यों नहीं हैं।
हाँ! यह सत्य अब मान लिया
सारे उपक्रम धाराशायी हुए
धधकते सवालों की चिनगारी
कलेजे को राख बना चुकी है
साबुत मन तरह-तरह के सामंजस्य में उलझा
चिन्दी-चिन्दी बिखर चुका है।
बड़ी जुगत से चाँदनी वस्त्रों में लपेटकर
जिस्म के मांस की पोटली बनाई है
दागते सवालों से झुलसी पोटली
सफ़र में साथ है
ज़रा-सा थमो
जिस्म की यह पोटली
दिल की तरह खुलकर
अब बस बिखरने को है।
-जेन्नी शबनम (25.11.2020)
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बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२६-११-२०२०) को 'देवोत्थान प्रबोधिनी एकादशी'(चर्चा अंक- ३८९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
लाजवाब
जवाब देंहटाएंवाह!बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंbehtreen ...Zenni ji
जवाब देंहटाएंओह! मार्मिक !
जवाब देंहटाएंसार्थक और मर्मस्पर्शी रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसच्चाई से रूबरू कराती ह्रिदय्स्पर्शी रचना...।मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है ...सादर..।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन - नमन सह।
जवाब देंहटाएंदिल की तरह यदि जिस्म की पोटली बन जाए तो फिर बहुत से सवाल अपने आप मिट जाएँ.
जवाब देंहटाएंबहुत गहराई भरी रचना
वाह!
जवाब देंहटाएंलाजवाब!!!
सुंदर रचना।
क्या कहने!!!