शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

716. ज़िन्दगी भी ढलती है

ज़िन्दगी भी ढलती है 

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पीड़ा धीरे-धीरे पिघल, आँसुओं में ढलती है   
वक़्त की पाबन्दी है, ज़िन्दगी भी ढलती है।   

अजब व्यथा है, सुबह और शाम मुझमें नहीं   
बस एक रात ही तो है, जो मुझमें जगती है।   

चाहके भी समेट न पाई, तक़दीर अपनी   
बामुश्किल बसर हो जो, ज़िन्दगी क्यों मिलती है।   

मैं तो ठहरी रही, सदियों से ख़ुद में ही छुपके   
वक़्त की बेबसी, सदियाँ बेतहाशा उड़ती है।   

जाने क्यों हर रास्ता, मुझसे पीछे छूटा है   
मैं अनजानी, ज़िन्दगी बेअख्तियार उड़ती है।   

दिन की कहानी, मुमकिन ही कहाँ कि 'शब' बताए   
रात ज़िन्दगी उसकी, रात की कहानी कहती है।  

- जेन्नी शबनम (9. 4. 2021)

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12 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-04-2021) को   "आदमी के डसे का नही मन्त्र है"  (चर्चा अंक-4033)    पर भी होगी। 
    -- 
    सत्य कहूँ तो हम चर्चाकार भी बहुत उदार होते हैं। उनकी पोस्ट का लिंक भी चर्चा में ले लेते हैं, जो कभी चर्चामंच पर झाँकने भी नहीं आते हैं। कमेंट करना तो बहुत दूर की बात है उनके लिए। लेकिन फिर भी उनके लिए तो धन्यवाद बनता ही है निस्वार्थभाव से चर्चा मंच पर टिप्पी करते हैं।
    --  
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।    
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  3. बामुश्किल बसर हो जो, ज़िन्दगी क्यों मिलती है? बहुत ख़ूब! धीरे-धीरे एक-एक लफ़्ज़ को ग़ौर से पढ़ा और जो कहने की कोशिश की गई है, उसे गहराई से समझा। समझने के बाद दिल से केवल एक आह निकली।

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना आज शनिवार १० अप्रैल २०२१ को शाम ५ बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,

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  5. अजब व्यथा है, सुबह और शाम मुझमें नहीं
    बस एक रात ही तो है, जो मुझमें जगती है।

    बेहतरीन पंक्तियाँ। ।।।।।। आदरणीया। ।।।

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  6. बहुत भावभरी , सुन्दर, गहरी रचना, बधाई!

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  7. भावों से भरी लाज़बाब गजल ,सादर नमन शबनम जी

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  8. ज़िन्दगी बस यूं ही बसर होती है
    कभी गुजरती है तो कभी कटती है ।

    खूबसूरत ग़ज़ल

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