मंगलवार, 8 मार्च 2022

740. एक दिन मुक्ति के नाम

एक दिन मुक्ति के नाम 

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कभी अधिकार के लिए शुरु हुई लड़ाई   
हमारी ज़ात को ज़रा-सा हक़ दे गई   
बस एक दिन, राहत की साँसें भर लूँ   
ख़ूब गर्व से इठलाऊँ, ख़ूब तनकर चलूँ   
मेरा दिन है, आज बस मेरा ही दिन है   
पर रात से पहले, घर लौट आऊँ।
   
बैनर, पोस्टर, हर जगह छा गई स्त्री    
लड़की बचाओ, लड़की पढ़ाओ   
लड़की-लड़की, महिला-महिला    
बहन, बेटी, माँ, प्रेमिका अच्छी   
मानो आज देवी बन गई स्त्री    
रोज़ जो होती थी वह कोई और है   
आज है कोई नई स्त्री।
   
एक पूरा दिन करके स्त्री के नाम   
छीन ली गई सोचने की आज़ादी   
बारह मास की ग़ुलामी   
और बदले में बस एक दिन   
जिसमें समेटना है साल का हर दिन।
   
कभी जीती थी हर बाज़ी   
पर हार गई स्त्री    
सदियों से लड़ती रही   
पर हार गई स्त्री!
   
अब किसे लानत भेजी जाए?   
उन गिनी-चुनी स्त्रियों को   
जिनके सफ़र सुहाने थे   
जिनके ज़ख़्मों पर मलहम लगे   
इतिहास के कुछ पन्ने जिनके नाम सजे   
और बाक़ियों को उन 'कुछ' की एवज़ में   
यह कहकर मानसिक बन्दी बनाया गया-   
तुमने क्रान्ति की, देखो कितनी आज़ाद हो   
कभी किताबें तो पढ़कर देखो   
तुम केवल अक्षरों को याद हो   
लड़कों की तरह तुम्हारी परवरिश होती है   
देखो तुम्हारे हक़ में कितने कानून हैं   
तुम्हें विधान से इतनी ताक़त मिली   
जब चाहे हमें फँसा सकती हो   
तुम्हारे सामने हमारी क्या औक़ात   
हे देवी! हम पुरुषों पर दया करो! 
  
आज महिला दिवस है   
पूरी दुनिया की स्त्रियाँ जश्न मनाएँगी   
पर यह भी सच है आज के दिन   
कई स्त्रियों की जिस्म लुटेगा, बाज़ार में बिकेगा   
आग और तेज़ाब में जलेगा   
कइयों को माँ की कोख में मार दिया जाएगा   
बैनरों-पोस्टरों के साथ   
स्त्री की काग़ज़ी जीत पर नारा बुलन्द होगा   
छल-प्रपंच का तमाचा   
अन्ततः हमारे ही मुँह पर पड़ेगा।
   
कोई कुतिया कहकर   
बदन नोच-नोचकर खाएगा   
कोई डायन कहकर   
ज़मीन पर पटक-पटककर मार डालेगा   
रंडी बनाकर उसका सगा ही कमाई उड़ाएगा   
बेटी जनने वाली पापिन कहकर   
उसका आदमी ही उसे घर से निकालेगा   
या ब्याह दी जाएगी उसके साथ   
जो रोज़ जबरन भोगेगा   
या ज़ेवरों से लादकर आजीवन हुक़्म चलाएगा। 
  
आज के दिन मैं इतराऊँगी   
स्त्री होने पर फ़ख़्र करूँगी   
क़र्ज़ सही, ख़ैरात सही   
एक दिन जो मिला   
हम स्त्रियों को मुक्ति के नाम। 
  
क्यों आज अपनी हर साँसों के लिए   
किसी मर्द से फ़रियाद की जाए   
सौ बरस तक साँसें लें   
और बस एक दिन की ज़िन्दगी जी जाए।
   
मैं ख़ुद को धिक्कारती हूँ   
क्यों बस एक दिन की भीख माँगती हूँ   
क्यों नहीं होता हर दिन   
स्त्री-पुरुष का बराबर दिन!

-जेन्नी शबनम (8.3.2022)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस) 
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5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-03-2022) को चर्चा मंच       "नारी  का  सम्मान"   (चर्चा अंक-4364)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 9 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
    !

    अथ स्वागतम् शुभ स्वागतम्

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  3. बहुत सुंदर सृजन आदरनीय जैनी जी !!

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