बुधवार, 15 सितंबर 2010

174. मन भी झुलस जाता है (क्षणिका) / mann bhi jhulas jata hai (kshanikaa)

मन भी झुलस जाता है

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मेरे इंतिज़ार की इंतिहा देखते हो
या अपनी बेरुख़ी से ख़ुद ख़ौफ़ खाते हो
नहीं मालूम क्यों हुआ, पर कुछ तो हुआ है
बिना चले ही क़दम थम कैसे गए?
क्यों न दी आवाज़ तुमने?
हर बार लौटने की, क्या मेरी ही बारी है?
बार-बार वापसी, नहीं है मुमकिन
जब टूट जाता है बंधन, फिर रूठ जाता है मन
पर इतना अब मान लो, इंतज़ार हो या वापसी
जलते सिर्फ पाँव ही नहीं, मन भी झुलस जाता है 

- जेन्नी शबनम (13. 9. 2010)
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man bhi jhulas jata hai

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mere intizaar ki intihaan dekhte ho
ya apni berukhi se khud khouf khaate ho
nahin maalum kyon hua, par kuchh to hua hai
bina chale hi qadam tham kaise gaye?
kyon na dee aawaaz tumne?
har baar loutne ki, kya meri hi baari hai?
baar-baar wapasi, nahin hai mumkin
jab toot jata hai bandhan, phir ruth jata hai mann
par itna ab maan lo, intzaar ho yaa vaapasi
jalte sirf paanv hi nahin, man bhi jhulas jata hai.

- Jenny Shabnam (13. 9. 2010)
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7 टिप्‍पणियां:

  1. didi kamal likhati hai aap...wah.

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  2. बहुत बेहतरीन अभिव्यक्ति!! वाह!

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  3. पर इतना अब मान लो
    इंतज़ार हो कि वापसी
    जलते सिर्फ पाँव हीं नहीं
    मन भी झुलस जाता है !

    बहुत वेदना है इन पंक्तियों में ..

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  4. बार बार वापसी
    नहीं है मुमकिन,
    जब टूट जाता है बंधन
    फिर रूठ जाता है मन !
    पर इतना अब मान लो
    इंतज़ार हो कि वापसी
    जलते सिर्फ पाँव हीं नहीं
    मन भी झुलस जाता है !

    सत्य परत दर परत ऐसे ही खुलता है।
    सुन्दर अभिव्यक्ति।

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