उऋण
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जिनसे उऋण होना नहीं चाहती
वो कुछ लम्हे
जिनमें साँसों पर क़र्ज़ बढ़ा
वो कुछ एहसास
जिनमें प्यार का वर्क चढ़ा
वो कुछ रिश्ते
जिनमें जीवन मिला
वो कुछ नाते
जिनमें जीवन खिला
वो कुछ अपने
जिन्होंने बेगानापन दिखाया
वो पराए
जिन्होने अपनापन सिखाया
ये सारे ऋण
सर माथे पर
ये सब खोना नहीं चाहती
इन ऋणों के बिना
मरना नहीं चाहती
ऋणों की पूर्णिमा रहे
अमावस नहीं चाहती
ये ऋण बढ़ते रहें
मैं उऋण होना नहीं चाहती।
- जेन्नी शबनम (1. 11. 2015)
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बहुत सुंदर । बहुत अच्छा लिखती है आप । मेरी ब्लॉग पर आप का स्वागत है ।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 02 नवम्बबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमन की गहन संवेदना ऐसे ही शब्दों में व्यक्त होती है!
जवाब देंहटाएंअद्भुत और अनूठी चाहत
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-11-2015) को "काश हम भी सम्मान लौटा पाते" (चर्चा अंक 2149) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेजोड़ रचना ....
जवाब देंहटाएंye rid kabhi utarne k liye nhi hote .... bahut acchha likha hai aapne .
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