चाँद की पूरनमासी
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चाँद तेरे रूप में अब किसको निहारूँ?
या फिर सफ़ेद बालों वाली बुढ़िया
जो चरखे से रूई कातती रहती थी
या फिर वह साथी, जिससे बतकही करते हुए
न जाने कितनी पूरनमासी की रातें बीती थीं
इश्क़ के जाने कितने क़िस्से गढ़े गए थे
जीवन के फ़लसफ़े जवान हुए थे।
क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर
अपने वजूद में शामिलकर
जाने कितना इतराया करती थी
कितने सपनों को गुनती रहती थी
अब यह सब बीते जीवन का हिस्सा-सा लगता है
सीखों और अनुभवों का बोधकथा-सा लगता है।
हर पूरनमासी की रात जब तुम खिलखिलाओगे
अपने रूप पर इठलाओगे
मेरी बतकही अब मत सुनना
मेरी विनती सुन लेना
धरती पर चुपके से उतर जाना
अँधेरे घरों में उजाला भर देना
हो सके तो गोल-गोल रोटी बन जाना
भूखों को एक-एक टुकड़ा खिला जाना।
ऐ चाँद! अब तुमसे अपना नाता बदलती हूँ
तुम्हें अपना गुरु मानकर
तुममें अपने गुरु का रूप मढ़ देती हूँ
मुझे जो पाठ सिखाया जीवन का
जग को भी सिखला देना
हर पूरनमासी को आकर
यूँ ही उजाला कर जाना।
-जेन्नी शबनम (24.10.2018)
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (26-10-2018) को "प्यार से पुकार लो" (चर्चा अंक-3136) (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर भावधारा जेन्नी जी , बधाई !
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 25/10/2018 की बुलेटिन, " विसंगतियों के फ्लॉप शो को उल्टा-पुल्टा करके चले गए जसपाल भट्टी “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की अनंत मंगलकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव की अनंत मंगलकामनाएं !!
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