शनिवार, 4 सितंबर 2010

170. अंतिम पड़ाव अंतिम सफ़र / antim padaav antim safar

अंतिम पड़ाव अंतिम सफ़र

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जाने कैसा भटकाव था, या कि कोई पड़ाव था
नहीं मालूम क्या था, पर न जाने क्यों था
मुमकिन कि वहीं ठहर गई, या शायद राह ही ख़त्म हुई 

दरख़्त के साए में, कुछ पौधे भी मुरझा जाते हैं
कौन कहे कि चले जाओ, सफ़र के नहीं हमराही हैं
वक़्त की मोहताज़ नहीं, पर वक़्त से कब हारी नहीं?

चलो भूल जाओ काँटों को, ज़ख्म समेट लो
सिर पर ताज हो, और पाँव में छाले हों
हँसते ही रहना फिर भी, शायद यह अभिशाप हो

वादा किए हो, मन में हँसी भर दोगे
उम्मीद ख़त्म हुई ही कहाँ
अब भी इंतज़ार है,
कोई एक हँसी, कोई एक पल
वो एक सफ़र, जो पड़ाव था
शायद रुक जाएँ, हम दोनों वहीं,
उसी जगह गुज़र जाए
पहला और अंतिम सफ़र 

- जेन्नी शबनम (3. 9. 2010)
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antim padaav antim safar

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jaane kaisa bhatkaav tha, ya ki koi padaav tha
nahin maloom kya tha, par na jaane kyon tha
mumkin ki vahin thahar gai, ya shaayad raah hi khatm hui.

darakht ke saaye mein, kuchh poudhe bhi murjha jaate hain
koun kahe ki chale jaao, safar ke nahin humraahi hain
vakt kee mohtaaz nahin, par vaqt se kab haari nahin?

chalo bhool jaao kaanton ko, zakhm samet lo
sir par taaj ho, aur paanv mein chhaale hon
hanste hi rahna fir bhi, shaayad yah abhishaap ho.

vaadaa kiye ho, mann mein hansi bhar doge
ummid khatm hui hi kahaan
ab bhi intzaar hai,
koi ek hansi, koi ek pal
wo ek safar, jo padaav tha
shaayad ruk jaayen, hum dono vahin,
usi jagah guzar jaaye
pahla aur antim safar.

- Jenny Shabnam (3. 9. 2010)
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6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी रचना में भाषा का ऐसा रूप मिलता है कि वह हृदयगम्य हो गई है।

    फ़ुरसत में .. कुल्हड़ की चाय, “मनोज” पर, ... आमंत्रित हैं!

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  2. जाने कैसा भटकाव था
    या कि कोई पड़ाव था,
    नहीं मालुम क्या था
    पर न जाने क्यों था,
    मुमकिन कि वहीं ठहर गई
    या कि रास्ते ख़त्म हुए !
    yun hi bhatakta hai mann aur jane kab sare raaste khatm ho jate hain

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  3. अब भी इंतज़ार है...
    कोई एक हँसी
    कोई एक पल,
    वो एक सफ़र
    जो पड़ाव था,
    शायद रुक जाएँ
    हम दोनों वहीं,
    उसी जगह गुज़र जाए
    पहला और अंतिम सफ़र !
    वाह...
    बहुत खूबसूरत जज़्बात पेश किए हैं आपने...
    बधाई.

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  4. चलो भूल जाओ काँटों को
    ज़ख्म समेट लो,
    सिर पर ताज हो
    और पाँव में छाले हों,
    हँसते हीं रहना फिर भी
    शायद यह अभिशाप हो !

    पूरी कविता लाजवाब है मगर ये पार्ट बहुत ही अच्छा लगा... बधाई |

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  5. woh kay pram hai ...
    चलो भूल जाओ काँटों को
    ज़ख्म समेट लो,
    सिर पर ताज हो
    और पाँव में छाले हों,
    हँसते हीं रहना फिर भी
    शायद यह अभिशाप हो !

    vase acha tari hai apne woh wohi lutne ka bhgvan kari jaldi jamin par ao tab dekhe gai tamasa

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