रविवार, 27 मार्च 2011

224. ऐ ज़िन्दगी

ऐ ज़िन्दगी

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तल्ख़ धूप कितना जलाएगी
अब तो बीत जाए दिन बुरा
रहम कर हम पर, ऐ ज़िन्दगी

बाबस्ता नहीं कोई
दर्द बाँटें किससे बता
चुप हो जी ले, ऐ ज़िन्दगी

दिन के उजाले में स्वप्न पले
ढल गई शाम अब करें क्या
किसका रस्ता देखें, ऐ ज़िन्दगी

वो कहते हैं समंदर में प्यासे रह गए
नदी की तरफ़ वो चले ही कब भला
गिला किससे शिकवा क्यों, ऐ ज़िन्दगी

न मिज़ाज पूछते न कहते अपनी
समझें कैसे उनकी मोहब्बत बता
तू भी हँस ले, ऐ ज़िन्दगी

- जेन्नी शबनम (21. 3. 2011)
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8 टिप्‍पणियां:

  1. न मिज़ाज पूछते न कहते अपनी,
    समझें कैसे, उनकी मोहब्बत बता,
    तू भी हँस ले, ऐ ज़िन्दगी !
    --
    वियोगी होगा पहला कवि,
    हृदय से उपजा होगा गान!
    निकल कर नयनों से चुपचाप,
    बही होगी कविता अनजान!
    --
    सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  2. वो कहते हैं समंदर में प्यासे रह गए
    नदी की तरफ, वो चले हीं कब भला,
    गिला किससे शिकवा क्यों, ऐ ज़िन्दगी !
    bahut hi badhiyaa

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  3. न मिज़ाज पूछते न कहते अपनी,
    समझें कैसे, उनकी मोहब्बत बता,
    तू भी हँस ले, ऐ ज़िन्दगी !

    बहुत खूब ...ज़िंदगी तो जीनी ही है फिर शिकवा शिकायत भी क्या ?

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  4. तल्ख़ धूप कितना जलायेगी
    अब तो बीत जाये, दिन बुरा,
    रहम कर हमपे, ऐ ज़िन्दगी !

    itni तल्ख़ ki bayaan nhi kar sakti ..

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  5. वो कहते हैं समंदर में प्यासे रह गए
    नदी की तरफ, वो चले हीं कब भला,
    गिला किससे शिकवा क्यों, ऐ ज़िन्दगी !

    न मिज़ाज पूछते न कहते अपनी,
    समझें कैसे, उनकी मोहब्बत बता,
    तू भी हँस ले, ऐ ज़िन्दगी !
    -ये पंक्तियाँ हृदय को आन्दोलित ।कर देती हैं । नदी की तरफ़ न आना ही प्यासे रह जाने का कारण है ।व्यथा को प्रस्तुत करने का अन्दाज़ बहुत मार्मिक है । जेन्नी जी हार्दिक बधाई

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