बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

296. दीपावली (दीपावली पर 11 हाइकु) पुस्तक - 20

दीपावली
(दीपावली पर 11 हाइकु)

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1.
दीपों की लड़ी
लक्ष्मी की आराधना
दीवाली आई।

2.
लक्ष्मी की पूजा
पटाखों का है शोर
दीवाली पर्व।

3.
दीपक जले
घर अँगना सजे
आई दीवाली।

4.
है दीपावली
रोशनी का त्योहार
दीप-बहार।

5.
श्री राम लौटे
अमावस्या की रात
दीवाली मने।

6.
अयोध्या वासी
मनाए दीपावली
राम जो लौटे।

7.
दीया जो जले
जगमग चमके
दीवाली सजे।

8.
दीया के संग
घर-अँगना जागे
दीवाली रात।

9.
प्रकाश-पर्व
जगमग दीवाली
खिलता मन।

10.
रोशनी फैली
घर बाहर धूम
आयी दीवाली।

11.
चमके-गूँजे
दीप और पटाखे
दीपावली है।

- जेन्नी शबनम (21. 10. 2011)
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रविवार, 23 अक्टूबर 2011

295. मेरे शब्द (पुस्तक - 41)

मेरे शब्द

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बहुत कठिन है, पार जाना
ख़ुद से, और उन तथाकथित अपनों से
जिनके शब्द मेरे प्रति
सिर्फ़ इसलिए निकलते हैं कि
मैं आहत हो सकूँ,
खीझकर मैं भी शब्द उछालूँ
ताकि मेरे ख़िलाफ़
एक और मामला
जो अदालत में नहीं
रिश्तों के हिस्से में पहुँचे
और फिर शब्दों द्वारा
मेरे लिए, एक और मानसिक यंत्रणा। 
नहीं चाहती हूँ
कि ऐसी कोई घड़ी आए 
जब मैं भी बेअख़्तियार हो जाऊँ
और मेरे शब्द भी। 
मेरी चुप्पी अब सीमा तोड़ रही है
जानती हूँ, अब शब्दों को रोक न सकूँगी
ज़ेहन से बाहर आने पर
मुमकिन है ये तरल होकर
आँखों से बहे या 
फिर शीशा बनकर
उन अपनों के बदन में घुस जाए
जो मेरी आत्मा को मारते रहते हैं। 
मेरे शब्द
अब संवेदनाओं की भाषा 
और दुनियादारी समझ चुके हैं। 

- जेन्नी शबनम (22. 10. 2011)
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शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

294. बाध्यता नहीं (क्षणिका)

बाध्यता नहीं

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ये मेरी चाह थी कि तुम्हें चाहूँ और तुम मुझे
पर ये सिर्फ़ मेरी चाह थी
तुम्हारी बाध्यता नहीं। 

- जेन्नी शबनम (9. 10. 2011)
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बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

293. ज़िन्दगी (तुकांत)

ज़िन्दगी

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ज़िन्दगी तेरी सोहबत में, जीने को मन करता है 
चलते हैं कहीं दूर कि, दुनिया से डर लगता है। 

हर शाम जब अँधेरे, छीनते हैं मेरा सुकून
तेरे साथ ऐ ज़िन्दगी, मर जाने को जी करता है। 

अब के जो मिलना, संग कुछ दूर चलना
ढलती उमर में, तन्हाई से डर लगता है। 

आस टूटी नहीं, तुझसे शिकवा भी है
ग़र तू साथ नहीं, फिर भ्रम क्यों देता है। 

'शब' कहती थी कल, ऐ ज़िन्दगी तुझसे
छोड़ते नहीं हाथ, जब कोई पकड़ता है। 

ऐ ज़िन्दगी, अब यहीं ठहर जा
तुझ संग जीने को, मन करता है। 

- जेन्नी शबनम (16. 10. 2011)
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गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

292. क़र्ज़ अदायगी

क़र्ज़ अदायगी

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तुमने कभी स्पष्ट कहा नहीं
शायद संकोच हो
या फिर सवालों से घिर जाने का भय
जो मेरी बेदख़ली पर तुमसे किए जाएँगे
जो इतनी नज़दीक वो ग़ैर कैसे?
पर हर बार तुम्हारी बेरुखी
इशारा करती है कि
ख़ुद अपनी राह बदल लूँ
तुम्हारे लिए मुश्किल न बनूँ
अगर कभी मिलूँ भी तो उस दोस्त की तरह
जिससे महज़ फ़र्ज़ अदायगी-सा वास्ता हो
या कोई ऐसी परिचित
जिससे सिर्फ़ दुआ सलाम का नाता हो। 
जानती हूँ
दूर जाना ही होगा मुझे
क्योंकि यही मेरी क़र्ज़ अदायगी है
थोड़े पल और कुछ सपने
उधार दिए थे तुमने
दान नहीं!

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2011)
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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

291. मुक्ति पा सकूँ

मुक्ति पा सकूँ

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मस्तिष्क के जिस हिस्से में विचार पनपते हैं
जी चाहता है, उसे काटकर फेंक दूँ
न कोई भाव जन्म लेंगे, न कोई सृजन होगा। 

कभी-कभी अपने ही सृजन से भय होता है
जो रच जाते हैं, वे जीवन में उतर जाते हैं
जो जीवन में उतर गए, वे रचना में सँवर जाते हैं। 

कई बार पीड़ा लिख देती हूँ और त्रासदी जी लेती हूँ
कई बार अपनी व्यथा, जो जीवन का हिस्सा है
पन्नों पर उतार देती हूँ। 

विचार का पैदा होना, बाधित करना होगा अविलम्ब
ताकि वर्तमान और भविष्य के विचार और जीवन से 
मुक्ति पा सकूँ। 

-जेन्नी शबनम (11.10.2011)
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सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

290. तब हुआ अबेर (क्षणिका)

तब हुआ अबेर

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जब मिला बेर, तब हुआ अबेर
मचा कोलाहल, चित्र दिया उकेर
छटपटाया मन, शब्द दिया बिखेर
बिछा सन्नाटा, अब जगा अँधेर
'शब' सो गई, तब हुआ सबेर। 

- जेन्नी शबनम (1. 10. 2011)
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गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

289. मेरी हथेली

मेरी हथेली

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अपनी एक हथेली तुम्हें सौंप आई
जब तुमसे मिली थी 
जिसकी लकीरों में है मेरी तक़दीर 
और मेरी तक़दीर सँवारने की तजवीज़।   
एक हथेली अपने पास रख ली 
जो वक़्त के हाथों ज़ख़्मी है 
जिसकी लकीरों में है मेरा अतीत 
और मेरे भविष्य की उलझी तस्वीर।   
विस्मृत नहीं करना चाहती कुछ भी 
जो मैंने पाया या खोया 
या फिर मेरी वो हथेली 
जो तुमने किसी दिन गुम कर दी
क्योंकि सहेजने की आदत तुम्हें नहीं। 

- जेन्नी शबनम (4. 10. 2011)
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मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

288. भस्म होती हूँ (क्षणिका)

भस्म होती हूँ

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अक्सर सोचकर हत्प्रभ हो जाती हूँ
चूड़ियों की खनक हाथों से निकल चेहरे तक
कैसे पहुँच जाती है?
झुलसता मन अपना रंग झाड़कर
कैसे दमकने लगता है?
शायद वक़्त का हाथ मेरे बदन में घुसकर
मुझसे बग़ावत करता है
मैं अनचाहे हँसती हूँ चहकती हूँ
फिर तड़पकर अपने जिस्म से लिपट
अपनी ही आग में भस्म होती हूँ। 

- जेन्नी शबनम (1. 9. 2011)
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